Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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२. गद्य-चिन्तामणि
यह गद्यकाव्य है। इसकी भी कथावस्तु पूर्वोक्त क्षत्रचूड़ामणिकी कथा ही है। कविने कथानकको ११ लम्बोंमें विभक्त किया है। कविकी मद्यशैली कादम्बरीकी गद्यशलीके समान है। कविने इस कथामें काव्यत्वका पूर्णतया समावेश किया है। पात्रोंके चरित्र भी जीवन्तरूपमें चित्रित हुए हैं। इस कृतिमें अप्रतिम कल्पना-वैभव, वर्णच-पटुता और मानव-मनोवृत्तियोंका मार्मिक निरीक्षण पाया जाता है। महाराज गभर काष्ठांगारक सामान सुनमा आशा-निराशाके द्वन्द्व में पड़ जाते हैं। उनकी इस द्वन्द्वात्मक विचारधाराका कविने हृदयग्राही चित्रण किया है।
प्रासाद, नगर, वन, श्मशान, राजसभा एवं पूर्वभवावलीका ब्यौरेवार चित्रण किया गया है। वर्णन-विविधताके साथ भावानुकूल भाषाका प्रयोग भी श्लाघ्य है। "बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम्' की उक्ति इस ग्रन्थके समक्ष झूठी प्रतीत होती है। कविने भाषाका प्रयोग रमणीय और भावोंके अनुसार दीर्घ समास एवं अल्प समासके रूपमें किया है। जहाँ विषय भाव-प्रधान मार्मिक अथवा गम्भीर होता है वहाँ शैली बड़ी हो सशक्त एवं प्रभावोत्पादक पायी जाती है। जब जीवन्धर अपने राज्यको पुनः प्राप्त करनेके लिए काष्ठांगारपर आक्रमण करता है, उस समय काष्ठांगारका रौद्र रूप दर्शनीय है यथा
“स रुष्टः काष्ठांगारः क्रोधवेगस्फुरदोष्ठपुटतया निकटवर्तिनो निजाह्वानकृते कृतागमान्कृतान्तदूतानिव स्वान्तसन्तोषिभिः सान्त्वयन्वचोभिः नातिचिरभाविनरकावसथेभवदवतमसप्रवयमिवात्मानं प्रतिग्रहीतुकाममागतं करालं कालमेघाभिधानं करिणमारुह्य रोषाशशक्षणि विज़म्भमाणशोणेक्षणतीक्ष्णाचिकटाच्छन्नाङ्गतया सप्ताचिषि निमज्जयन्निजस्वामिद्रोहभावं विभावयित्तुं सत्यापयन्निव सत्यन्धरमहाराजतनयाभिमुखमभोयाय । . . .
कवि जिस समय किसी उत्सव या विलासका चित्रण करता है उस समय उसकी शेली अपेक्षाकृत क्लिष्ट एवं प्रगाढ़ हो जाती है । दीर्घकाय समास, विपुल वाक्य, विशिष्ट एवं श्लिष्ट पदावली चित्रकाव्यके समस्त माधनोंको उपलब्ध कर देती है । जीवन्धरके जन्मोत्सवका चित्रण करता हुआ कवि कहता है
"यस्मिश्च जातवति जातपिष्टातकमष्टिवर्षपिञ्जरितहरिम्मुखमुन्मुखकुब्जवामनहठाकृष्यमाणनरेन्द्राभरणं प्रणयभरप्रवृत्तवारयुवतिबर्गबल्गनरणितमणिभूपणनिनदरितहरिदवका निमर्यादमदपरवापण्ययोपिदारलेगलज्जभानगजवल्लभं · · · · · · १. गद्यचिन्तामणि, दशम लाय, प० २१९ । २. वही, प्रथम लम्ब, पृ० ४३ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३३