Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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के वास्तविक नाम 'कलाप' और 'कौमार' हैं । लेखकका कथन है कि भगवान् ऋषभदेवने ब्राह्मीकुमारी के लिए इस ग्रन्थको रचना की, अतः यह नाम पड़ा । स्वयं भावसेनने इस व्याकरण के लिए 'सर्वबर्माकृत' इस विशेषणका प्रयोग किया है । इस व्याकरण के दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। पहला संस्करण जैन- ग्रन्थ- रत्नाकर कार्यालय बम्बई और दूसरा वीर पुस्तक भण्डार जयपुरसे प्रकाशित हुआ है । संस्कृत भाषा के आरम्भिक अभ्यासियोंके लिए यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है ।
५. न्यायसूर्यावलि - इस ग्रन्थको पाण्डुलिपि स्ट्रासबर्ग (जर्मनी) के संग्रहालय में है। इसमें मोक्षशास्त्र के ९ परिच्छंद हैं ।
६. भुक्ति-मुक्तिविचार इस ग्रन्थकी पाण्डुलिपि भा उपर्युक्त संग्रहालय में है । इसमें स्त्रीमुक्ति और चर्चा की है। ७. सिद्धान्तसार - जिन रत्न कोषके वर्णनानुसार यह ग्रन्थ मूडविद्रीके मठमें है तथा इसका ७०० श्लोकप्रमाण है । पर श्रीविद्याधर जोहरापुरकरकी सूचनाके अनुसार यह ग्रन्थ वहाँ नहीं है ।
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८. न्यायदीपिका - इस ग्रन्थकी सूचना लुई राइस द्वारा सम्पादित मेसूर और कुर्गकी हस्तलिखित ग्रन्थसूचीसे प्राप्त होती है । कहा नहीं जा सकता कि यह धर्मभूषणको न्यायदीपिकासे भिन्न कोई स्वतन्त्र कृति है अथवा वही है ।
सप्तपदार्थी टीका — इसका उल्लेख पाटनके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूचीकी प्रस्तावना में आया है ।
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१०. विश्वतत्त्वप्रकाश – इस ग्रन्थ में चार्वाकदर्शनमीमांसा, सर्वज्ञसिद्धि, ईश्वरमीमांसा वेदप्रामाण्यमीमांसा, स्वत्तः प्रामाण्यविचार, भ्रन्तिविचार, मायावादविचार आत्मापुत्वविचार, आत्मविभूत्वविचार आत्मासर्वज्ञश्वविचार, समवायविचार, गुणविचार, इन्द्रियविचार, दिग्द्रव्यविचार, वैशेषिकमतविचार, न्यायमतविचार, मीमांसादर्शनविचार, सांख्यदर्शनविचार और बौद्धदर्शन विचार प्रकरणोंका समावेश किया गया है । विषयोंकी दृष्टिसे सर्वप्रथम आत्माके स्वरूपकी स्थापना की गयी है । चार्वाकोंका आक्षेप है कि जीव नामक कोई अनादि, अनन्त, स्वतन्त्र तत्व किसी प्रमाणसे ज्ञात नहीं है । जीव या चैतन्यकी उत्पत्ति शरीररूपमें परिणत चार महाभूतोंसे हो
१. विएन्ना ओरियेन्टल जरनल सन् १८५७, पृ० ३०५ ।
२, विश्वतत्त्वप्रकाश जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर प्रस्तावना पृ० ६
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: २६१