Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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ब्रह्मदेव अध्यात्मशेलीके टीकाकारोंमें आचार्य ब्रह्मदेवका नाम उल्लेखनीय है । ये जैनसिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान थे। इन्होंने 'स्व' समव और पर समयका अन्डा अध्यया किया है। इनके सम्बन्धमें वृहद्रव्यसंग्रहको भूमिकामें पंडित जबाहरलालजोने लिखा है कि ब्रह्म उनको उपाधि है, जो बतलाती है कि वे ब्रह्मरारी थे और देव उनका नाम है । कई ग्रन्थकारोंने अपने नामके प्रारम्भमें ब्रह्मशब्द का उपयोग उपाधिके रूपम किया है। यथा-आराधनाकथाकोशके कर्ता ब्रह्म नेमिदत्त और श्रुतस्कन्धके रचयिता ब्रह्म हेमचन्द्र । इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्म नेमिदत्त ब्रह्मचारी थे, पर 'ब्रह्म' यह उनकी उपाधि न होकर सम्भवतः ब्रह्मदेव यही पूरा नाम रहा हो। उनके उपलब्ध ग्रन्थोंसे उनके पाण्डित्यका तो परिज्ञान होता ही है, साथ ही अनेक विषगोंको जानकारी भी मिलती है। ब्रह्मदेवके परिचयके सम्बन्धमें उनके ग्रन्थोंसे कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती है। श्री पण्डित परमानन्दजो शास्त्रीने अपने एक निबन्ध में बताया है कि 'द्रव्यसंग्रह के रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव, वृत्तिकार ब्रह्मदेव
और सोमराज थष्टि ये तीनों ही समसामयिक हैं। उन्होंने अपने कथनकी पुष्टि के लिए 'बृहद्रव्यसंग्रह' को टोकाके उत्थानवाक्यको उपस्थित कर लिखा है
'पहले नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव द्वारा सोमनामके राजश्रेष्ठिके निमित्त मालव देशके आश्रमनामक नगरके मुनिसूबत चैत्यालयमें २६ गाथात्मक द्रव्यसंग्रहके लघुरूपमें रचे जाने और बादमें विशेष तत्वपरिज्ञानार्थ उन्हीं नेमिचन्द्रके द्वारा वृहद्रव्यसंग्रहकी रचना हुई है । उस बृहद्रव्यसंग्रहके अधिकारोंके विभाजनपूर्वक यह वृत्ति आरम्भ की जाती है। साथमें यह भी सूचित किया है कि उस समय आश्रमनामका यह नगर महामण्डलेश्वरके अधिकारमें था और सोम नामका राजश्रेष्ठि भाण्डागार आदि अनेक नियोगोंका अधिकारी होनेके साथसाथ तत्वज्ञानरूप सुधारसका पिपासु' था ।"
श्री परमानन्दजोका अनुमान है कि ब्रह्मदेवके उक्त घटनानिर्देश और लेखनशैलीसे यह स्पष्ट है कि ये सब घटनाएं उनके सामने घटी हैं। अतएव वृत्तिकार ब्रह्मदेवको नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेवके समकालीन या उनसे कुछ ही उत्तरकालवर्ती मानना चाहिए।
द्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव मालवदेशके निवासी थे। इन्होंने आश्रमनगरको अपने निवाससे पवित्र किया था और भव्यचातकोंको ज्ञाना
१. अनेकान्त वर्ष १९, पृ० १४५ । ३१० : तीथंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा