Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
शान्तिसेन तपो राज्याभ्युदयसमृद्धथर्थम् "" ।
▸
इस विरुदावली में सोमसेनसे पूर्व गुणभद्र, वीरसेन श्रुतवीर, माणिक्यसेन, गुणसेन, लक्ष्मीसेन, सोमसेन (प्रथम), माणिक्यसेन (द्वित्तीय), गुणभद्र (द्वितीय) के नाम आये हैं और उक्त सोमसेनको अभिनव सोमसेन कहा गया है । नरेन्द्रसेन के बाद उनके पट्टपर बैठनेवाले शान्तिसेनका भी निर्देश आया है । अतएव इस विरुदावलिसे भी नरेन्द्रसेनके गुरु छत्रसेन और दादागुरु समन्तभद्र सिद्ध होते हैं ।
नरेन्द्रसेन के दो शिष्यों के नाम भी मिलते हैं - १. शान्तिसेन २ अर्जुनसुत सोयरा । शान्तिसेन नरेन्द्रसेनके पट्टाधिकारी हुए । अजु नसुत सोयरा गृहस्थ थे, इन्होंने कैलाश छप्पयकी रचना की है।
नरेन्द्रसेन के समय और व्यक्तित्वपर विचार करते हुए डॉ० प्रो० दरबारी लाल कोठियाने लिखा है
'नरेन्द्रसेनका समय प्राय: सुनिश्चित है । इन्होंने विक्रम संवत् १७८७ में ज्ञानयन्त्रकी प्रतिष्ठा करवायी थी और विक्रम संवत् १७९० में पुष्पदन्तके 'जसहरचरित' की प्रतिलिपि स्वयं की थी । अतः इनका समय वि० सं० १७८७१७९० ( ई० सन् १७३० - - १७३३ ई०) है २ ।
रचना
नरेन्द्रसेनकी प्रमाणप्रमेयकलिका न्यायविषयक रचना है। इसमें प्रमाणत स्वपरीक्षा और प्रमेयतत्त्वपरीक्षा निबद्ध की गयी हैं। प्रमाण और प्रमेयका विस्तारइस प्रश्नपूर्वक विचार किया गया है । मङ्गलाचरणके पश्चात् तत्त्व क्या है, का उत्तर देते हुए लिखा है- 'यतस्तत्वपरिज्ञानाभावान्म तदाश्रिता मीमांसा प्रमाणकोटि कुटी रकमटाट्यते । आधारपरिज्ञाने आधेयपरिज्ञानाभावात् । अथ भवतु नाम नामतः सिद्धं किंचित्तत्त्वम्, यतस्तत्त्वं सामान्येनाभ्युपगम्य पश्चाद्विचार्यते, तत्त्वसामान्ये केषांचिद्विप्रतिपत्त्यभावात्' ।'
इस उत्थानिकाके पश्चात् इस प्रकरण में प्रभाकरके 'ज्ञातृव्यापार', सांख्ययोगके 'इन्द्रियवृत्ति', जरन्नैयायिक भट्ट जयन्तके 'सामग्री' अपरनाम कारकसाकल्य और योगोंके 'सन्निकर्ष प्रमाणलक्षणोंकी परीक्षा कर स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानको प्रमाणका निर्दोष लक्षण सिद्ध किया है। ज्ञानके कारणोंपर विचार करते हुए इन्द्रिय और मनको ज्ञानका अनिवार्य कारण बतलाया है। ज्ञानोत्पत्तिमें कारण
१. भट्टारक परम्परा, सोलापुर, लेखांक ७६ ।
२. प्रमाण- प्रमेयकलिका, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावना, पृ० ५९
३. प्रमाणप्रमेयकलिका, पू० १ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ४२७