Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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तृतीय नरेन्द्रसेन "सिद्धान्तसारसंग्रह' और 'प्रतिष्ठादीपक' के रचयिता हैं । प्रशस्तियों में उनकी उपाधि पण्डिताचार्य प्राप्त होती है। ये नरेन्द्रसेन अपनेको वीरसेनका प्रशिष्य और गुणसेनका शिष्य बतलाते हैं । इनके सम्बन्धमें पहले लिखा जा चुका है।
चौथे नरेन्द्रसेन काष्ठासंघ के लाइबागडगच्छकी पट्टावलीमें उल्लिखित हैं । इन्होंने अल्पविद्याजन्य गर्वसे युक्त अशाधरको सूत्रविरुद्ध प्ररूपणा करनेके कारण अपने गच्छसे निकाल दिया था। ये नरेन्द्रसेन पद्मसेनके शिष्य थे। पट्टाबली में गुरु-शिष्योंकी लम्बी परम्परा दी गयी है। इसमें त्रिषष्टिपुराणपुरुष चरितकर्त्ता महेन्द्रसेन, चतुर्दशतीर्थंकर्त्ता अनन्तकीति, उसनस्थीविजेता विजयसेन, लाडवागडगच्छके जन्मदाता चित्रसेन, पद्मसेन और नरेन्द्रसेन के नाम आये हैं। पट्टावलीसे यह भी अवगत होता है कि पद्मसेनशिष्य नरेन्द्रसेन प्रभावशाली विद्वान् थे । इनके द्वारा बहिष्कृत किये गये आशाधरको श्रेणिगच्छमें जाकर आश्रय लेना पड़ा था । पूर्वे नरेन्द्रसेन वे हैं, जिनका उल्लेख वीतरागस्तोत्रमें उसके कर्ताके रूपमें हुआ है
श्रीजेनसूरि-विनत-क्रमपद्मसेनं,
हेला - विनिर्दलित- मोह- नरेन्द्रसेनम्' ।
इस स्तोत्र में पद्मसेनका भी उल्लेख है। ये दोनों आचार्य स्तोत्रकर्ता द्वारा गुरुरूपसे स्मृत किये गये है। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार ने इस स्तोत्रका रचयिता कल्याणकीर्तिको बतलाया है । स्तोत्रमें पद्मसेन और नरेन्द्रसेनका उल्लेख होनेसे ये चतुर्थं नरेन्द्रसे भिन्न नहीं हैं ।
छट्ठे नरेन्द्रसेन संस्कृत-रत्नत्रयपूजाके कर्ता हैं। इस पूजाके पुष्पिकावाक्य में लिखा है" इति श्री लाडवागडीयपण्डित्ताचार्य श्रीमन्नरेन्द्रसेन विरचिते - रत्नत्रयपूजाविधाने दर्शनपूजा समाप्ता ।"
सिद्धान्तसारके कर्ता नरेन्द्रसेनकी उपाधि भी पण्डिताचार्य है तथा वे भी लाडवागङगच्छके आचार्य है । अतः बहुत सम्भव है कि ये दोनों व्यक्ति अभिन्न हों ।
१. तदन्वये श्रीमत्लाटव टप्रभावश्रीपद्मसेनदेवानां तस्य शिष्य श्री नरेन्द्रसेन देवैः किंचिदविद्यागत असून प्ररूपणादाशाधरः स्वगच्छान्निः सारितः कदामहृग्रस्त' श्रेणिगच्छमशिश्रियत् । —भट्टारक सम्प्रदाय, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, लेखांक ६३२ २. अनेकान्स वर्ष ८, किरण - ६-७ ० २३३ ।
३ भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० २५३, लेखांक ६३३ ।
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प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४२५