Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 453
________________ काष्ठासंघ सरित्पत्तिः शशधरो वादी विशालोपमः सद्व्रतोऽकंवरातिसुंदरतरो श्रीजेनमार्गानुगः ॥४६१ ॥ संवत्सरे षोड़शनामधेये एकोनशत षष्टियुते वरेण्ये | श्रीमार्गशीर्षे रचितं मया हि शास्त्रं च वर्षे बिमले विशुद्धं ॥ ४६२ || त्रयोदशीसद्दिवसे विशुद्धं वारे गुरौ शान्तिजिनस्य रम्यं । पुराणमेतद्विमलं विशालं जीयाच्चिरं पुण्यकरं नराणाम् ॥४६३ ॥ २. द्वादशांगपूजा द्वादशांगपूजा में वर्णित है। अर्चे आगमदेवतां सुखकरां लोकत्रये नीराज्यप्रतिकारकैः क्रमयुगं संपूज्य विद्याभूषणसद्गुरो पदयुगं मत्वा कृतं सच्छ्रीभूषणसंज्ञकेन कथितं ज्ञानप्रदं बताए है--- दीपिकां । बोधप्रदां ॥ निर्मलं | बुद्धिदं ॥ ३. प्रतिबोधचिन्तामणि इस ग्रन्थ में मूलसंघकी उत्पत्तिकी कथा दी गयी है, जो साम्प्रदायिक विद्वेषपूर्ण है । इस प्रकार श्रीभूषण भट्टारकने साहित्य और संस्कृतिके प्रचारमें अपूर्व योगदान किया है। भट्टारक चन्द्रकीर्ति ये काष्ठासंघ नन्दितटगच्छके भट्टारक विद्याभूषण के प्रशिष्य और भट्टारक श्रीभूषणके शिष्य एवं पट्टधर थे । ये ईडरकी गद्दीके भट्टारक थे और ईडरकी गद्दी के पट्टस्थान उस समय सूरत, डूंगरपुर, सोजित्रा, झेर और कल्लोल आदि प्रधान नगर थे । पार्श्वनाथपुराणकी प्रशस्तिमें चन्द्रकीर्तिने अपना परिचय अंकित किया है । यों तो नन्दीश्वरपूजा, ज्येष्ठजिनवरपूजा और सरस्वतीपूजामें भी इनका परिचय उपलब्ध होता है । यहाँ पार्श्वनाथपुराणकी प्रशस्ति उपस्थित की जाती है काष्ठासं गच्छनंदीतटीयः श्रीमद्विद्याभूषणाख्यश्त्र सूरिः । आसीत्पट्टे तस्य कामांतकारी विद्यापात्रं दिव्यचारित्रधारी ॥ यदग्रतो नैति गुरुगुरुत्वं श्लाघ्यं न गच्छत्युशनोपि बुद्धया । मारत्यपि नैति माहात्म्यमुग्रं श्रीभूषणः सुविरः स पायात् ॥ १. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६८७ । २. जैन साहित्य और इतिहासके अन्तर्गत साम्प्रदायिक विद्वेषका एक उदाहरण, प्रथम संस्करण, पु० ३४१, ३४४ २९ प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४४१

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