Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

View full book text
Previous | Next

Page 421
________________ करनेवाले, अंगसाहित्य के प्रवचनकर्ता, निष्परिग्रही, यतीश्वर, मन्दर, गौम्य. मुनिगणतिलक और धर्मानुरागी थे। महाकवि रइधूने इनको गुणकीर्त्तिका भाई भी बतलाया है । लिखा है-- ......"जो गुणस्मुकित्ति मामलो ॥ सुतासु पट्टि भायरो। वि आयत्यसायगे। रिसीस गच्छणायको । जगत्तमिस्बदायको | जसक्लुकित्ति सुंदरो। अंकयु णायमंदिरो || —पामणाह० १२।८-११ इस कथन पुष्टि अन्य प्रशस्तिसे भी होती है संयमविवेक निलयान् विवुधकुलसिलकान् भट्टारवा-लघु-भ्राता यता:कीर्तिदेवाः । ___ अर्थात् भट्टारकयशःकीर्ति भट्टारकगणकीर्तिके भाई, आगमग्रन्थोंके अर्थके लिए सागरके समान, ऋपीश्वरोंके गच्छमायक, विजयकी शिक्षा देनेवाले, सुन्दर, निर्भीक, ज्ञानमन्दिर, भट्टारक गुणकीर्ति के शिष्य तथा क्षमागुणसे सुशोभित थे। भट्टारकयशःकोतिको गुणकीर्तिका लघुभाई महाकविसिंहने 'पज्जुण्याचरिउ'को अन्त्य पुष्पिकामें बताया है। भट्टारकयशःकीर्तिने भी अपनेको गुणकीर्त्तिका भाई लिखा है-- तह विक्खायउ मुणि गुणकित्तिणामु । तब तेएं, जासु सरीस खामु । तहो णियबदउ जसकित्ति जाउ ।। .-यश कीर्ति पाण्डवपुराण, अन्त्य प्रशस्ति । अतः यह सम्भव है कि यशःकीति गृहस्थावस्थामें गुणकीर्तिके लघुभाई रहे हों। गुणकीर्तिके पट्टासीन होनेपर ये उनके शिष्य हो गये होंगे। भट्टारक परम्पराके इतिहास पर दृष्टिपात करनेसे अवगत होता है कि मध्यकालीन माथुरगच्छ परम्पराका आरम्भ माधवसेनसे हुआ है। इनके दो शिष्य हुए-उद्धरसेन और विजयसेन । उद्धरसेनके पश्चात् क्रमशः देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति और गुणकीर्तिभट्टारक हुए । गुणकीर्तिके आम्नायमें वि०सं०१४६८में ग्वालियरमें राजा वीरमदेवके राज्यकालमें अग्रवाल साध्वी देवश्रीने पञ्चास्तिकायकी प्रति लिखवायी थी। आपने संवत् १४७३में एक मूर्ति स्थापित की थी। १. आमेर प्रशस्ति संग्रह ( जयपुर ), पृ० १३७ । प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४०९

Loading...

Page Navigation
1 ... 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466