Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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श्रीमूलसंघे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे भट्टारक श्रीकुंदकुंदाचार्यन्वये । भट्टारक श्रीपद्यनन्दिदेवास्तत्पटे भट्टारक श्रीशुभचन्द्रदेवास्तपट्टे भट्टारकश्रीजिनचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीप्रभाचन्द्रदेवस्तच्छिष्य मंडलाचार्य श्रीधर्मचन्द्रदेवास्तदाम्नाये ।"
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि यह पाण्डुलिपि वि० सं० १६०२ में तैयार की गयी है । यह प्रति चम्पावतीके पाश्वनाथके चैत्यालय में लिखी गयी है । महनन्दिने अपना विशेष परिचय नहीं दिया है और न इस ग्रन्थ के लिखनेका काल ही दिया है। भट्टारक वीरचन्द्र, जिनको इन्होंने अपना गुरु माना है वह भी निश्चितरूपसे कौन वीरचन्द्र हैं, यह नहीं कहा जा सकता है। बलात्कारगण संघ सूरत- शाखाके भट्टारकोंमें भट्टारक लक्ष्मीचन्द्रके दो शिष्यों के नाम आते हैं— अभयचन्द्र और वीरचन्द्र । वीरचन्द्रका समय एक मूर्तिलेख के आधारपर १६ वीं शताब्दी प्रतीत होता है । यदि इन्हीं वीरचन्द्रके ये शिष्य हों, तो महनन्दिका समय भी १६ वीं शतीका उत्तरार्द्ध होना चाहिये । महनन्दि मुनि थे, भट्टारक नहीं । अतएव वीरचन्द्रकी पट्टावली में इनके नामका उल्लेख न होना स्वाभाविक ही है । अतः हमारा अनुमान है कि लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य वीरचन्द्र ही इनके गुरु हैं और इनका समय वि० सं० की १६ वीं शताब्दी है ।
रचना
महनन्दिकी एक ही रचना प्राप्त है— पाहुडदोहा। यह रचना बाहरखड़ीके क्रमसे लिखी गयी है । इस बारहखड़ीमें य, श, ष, ङ, ञ और ण इन वर्णोंका समावेश नहीं किया है और न इन वर्णोंपर कोई दोहा ही लिखा गया है । इसमें ३३३ दोहे हैं, जिनकी संख्याकी अभिव्यञ्जना कविने विभिन्न रूपों में की है ।
एक्कु या रु प शारदह ङ ण तिन्निवि मिल्लि । चवीस गल तिणिसय, विरइए, दोहा वेल्लि ॥ ४ ॥ तेतीसह छह छंडिया, विरइय सत्तावीस | बारह गुणिया तिष्णिसय, हुअ दोहा चउबीस ॥ ५ ॥ सो दोहा अप्पाणयहु, दोहो जोण मुणेइ ।
मणि महामंदिण भासिय, सुणिविण चित्ति धरे ॥ ६ ॥
यह रचना उपदेशात्मक, आध्यात्मिक और नीति सम्बन्धी है । कविने छोटेछोटे दोहोंमें सुन्दर भावका गुम्फन किया है । स्थापत्यकी दृष्टिसे भी इसका कम महत्त्व नहीं है । बारह खड़ी शैलीमें कविने दोहोंका सृजन किया है। प्रत्येक दोहे के आरम्भ में क, का, की, कि, कु- कू, के, कै, को, कौ कं कः तथा ख खा, खी, खि, खु, खू, खे, खे, खो, खो, खं खः के क्रमसे दोहों का सृजन किया
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४२० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा