Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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गया है । विषय आरम्भ करते समय कवि अहिंसाकी महत्ताका निरूपण करते हुए कहता है कि संसार में समस्त धर्मका सार अहिंसा है । अतएव प्राणीको हिंसक आचरण द्वारा इस संसार में निमग्न नहीं होना चाहिये | अहिंसाका आचरण व्यक्ति के जीवनको उन्नत बनाता है, भावोंको विशुद्ध करता है और निर्वाण मार्ग की ओर ले जाता है । कविने लिखा है
किजइ जिणवर भासिय, धम्मु अहिंसा सारु । जिम छिनइ रे जीव तुहु, अवलीढउ संसारा ॥ ९ ॥
कवि आत्माकी अमरता और शरीर की नश्वरताका चित्रण करता हुआ कहता है कि जिस प्रकार दूधमें घी, तिलमें तेल और काष्ठमें अग्नि रहती है, उसी प्रकार शरीरमें आत्मा निवास करती है । अतएव जो क्षुद्र भावोंकी त्यागकर स्वभाव धारण करता है, वही तप, व्रत और संयम धारण कर कर्मोंका क्षय करता है। जो ध्यान द्वारा कर्मोंका क्षपण करता है, बहू सात-आठ या दो-तीन भवमें मुनिपद प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है । कवि व्रत, संयम, नियम और तपपर विशेष जोर देता है। वस्तुतः जो आराधक सम्यक्त्वको प्राप्त कर व्रत और संगम द्वारा अपनी आत्माको पवित्र करता है, वह शीघ्र हो निर्वाणपद पाता है । कवि शरीरप्रमाण सर्वांगीण आत्माकी सिद्धि करता हुआ कहता है-
खीरह मज्झइ जेम घिउ, तिलठ मंज्झि जिम तिलु 1 कहि वास जिम वसई, तिम देहहि देहिल्लु || २२ || खुददभाव जिय परिहहिं सुहभाव हि मणुदेहि । तव वर्याणमहिं संजमह, दुक्किय कम्म खबेहि ॥ २३ ॥ स्वणाम वंदणि पडि कर्माण, झाण सयण मकरीसि । सतह दुहु-तिहि भवहि, मुणिणिव्वाणु लहोसि ॥ २४ ॥ आचार्य ने बताया है कि जो व्यक्ति जीवनपर्यन्त इन्द्रियनिग्रह, दया,
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उसके मरण करनेमें कोई हानि
संयम, नियम और तपका आचरण करता है, या कष्ट नहीं है । इस मनुष्यपर्यायका उद्देश्य व्रत और संयम धारण करना है । यदि जीवन में व्रत और संयमकी प्राप्ति हो गयी, तो यह मनुष्यपर्याय सार्थक हो जाती है । जीवनका अन्तिम लक्ष्य आत्मशुद्धि है, जो व्यक्ति इस आत्मशुद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है, वह मनुष्यभवको सार्थक कर लेता है । दमुदय संजमु पियमुतउ, आजं मुवि किउ जेण ।
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तासु मर तह कवण भऊ कहियउ महइदेण ॥ १७५ ॥ आचार्यने दानके चार भेद बतलाये हैं— जीवदया, आहारदान, औषधदान
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ४२१