Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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इनमें भी उक्त गुणका लक्ष्ण अतिव्यास हो जायेगा । इस कारण इनकी निवृत्तिके हेतु 'निर्गुणाः' यह विशेषण दिया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरिने लिखा है
" निर्गुणः इति विशेषणं द्वणूक त्र्यणुकादिस्कन्वनिषेधार्थम्, तेन स्कन्धाश्रया गुणा गुणा नोच्यन्ते । कस्मात् ? कारणभूतपरमाणुद्रव्याश्रयत्वात् तस्मात् कारणात् निर्गुणा इति विशेषणात्स्कन्ध गुणा गुणा न भवन्ति पर्यायाश्रयत्वात्। " अर्थात् 'निर्गुण' यह विशेषण ह्यणुक, व्यणुक आदि स्कम्बके निषेधके लिए है । इससे स्कन्धमें रहनेवाले गुण गुण नहीं कहे जा सकते, क्योंकि वे कारणभूत परमाणुद्रश्यमें रहते हैं । अतएव स्कन्धके गुण गुण नहीं हो सकते, क्यांकि वे पर्याय में रहते हैं । यह हेतुवाद बड़ा विचित्र है और है सिद्धान्तके प्रतिकूल | सिद्धान्त में रूपादि चाहे घटादि स्कन्धों में रहनेवाले हों, या परमाणुमें सभी गुण कहे जाते है । ये स्कन्धके गुणोंको गुण ही नहीं कहना चाहते, क्योंकि पाश्रित हैं। अलए 'निर्माण' पदकी सार्थकताका मेल नहीं बैठता है । इस असंगति के कारण आगे शंका-समाधानमें भी असंगति प्रतीत होती है ।
श्रुतसागरी वृत्तिके २८१ वें पृष्ठपर गुणस्थानोंका वर्णन करते समय लिखा है कि मिध्यादृष्टिगुणस्थान से सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में पहुँचनेवाला जीव प्रथमो - पशमसम्यक्त्वमें ही दर्शनमोहन की तीन और अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम करता है। यह सिद्धान्तविरुद्ध है, क्योंकि प्रथमोपशमसम्यक्त्वमें दर्शन मोहनीयकी केवल एक प्रकृति मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार इस तरह ५ प्रकृतियोंके उपशमसे ही प्रथमोपशमसम्यक्त्व बताया गया है । सातका उपशम तो, जिनके एकबार सम्यक्त्व हो चुकता है, उन जीवोंके द्वारा प्रथमोपशम के समय होता है । ९२/४७ सूत्रकी वृत्ति में श्रुतसागरने द्रव्यलिंगकी व्याख्या करते हुए असमर्थ मुनियोंको अपवाद रूपसे वस्त्रादि ग्रहण करने पर सहमति प्रकट की है
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"केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृह्णन्ति न तत् प्रक्षालयन्ति न तत् सोव्यन्ति न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति । केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लज्जितत्वात् तथा कुर्वन्तीति व्याख्यानमाराधनाभगवतोप्रोक्ताभिप्रायेण अपवादरूपं ज्ञातव्यम् । उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिबलवान् इत्युत्सर्गेण तावद् यथोक्तमाचेलक्यं प्रोक्तमस्ति, आर्यासमर्थदोषवच्छरीराद्यपेक्षया अपवादव्यास्थाने न दोषः ।' अर्थात् असमर्थ - मुनि शीतकाल आदिमें कम्बल वगेरह ग्रहण कर लेते हैं, किन्तु न तो वे उसे धोते हैं, न सीते हैं और न कोई उसके लिये प्रयत्नादि ही करते हैं । शीतकाल
३९६ : तीर्थंकर माहवीर और उनकी माचार्य-परम्परा