Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 411
________________ ऋ, ऋ, ल, लु, ए, औ, छ, ञ, श, ष प्लुत्त स्वर व्यञ्जन द्विवचन चतुर्थी बहुवचनानि च न स्युः । के अवं | सौ अरिवंकौरवा । इति च दृश्यते । सर्वविधिांवकल्पश्चार्षे ॥ अर्थात् प्राकृतमें ऋ, ऋ, ल, ल, ऐ, ओ, छ, त्र, ष प्लुत नहीं होते हैं। द्विवचन और चतुर्थी विभक्ति भो नहीं है। आर्ष प्रयोगोंमें सभी विधियाँ विकल्पसे प्रयुक्त होती हैं । प्रथम अध्यायके द्वितोय सूत्रमें समासमें परस्पर ह्रस्व और दोघं की व्यवस्था बतायी गयी है । यथा-अन्तर्वोद अन्तावई । सप्तबित्तिः सत्तावोसा। अप्रवृत्तौ जुवइअणो। विकल्पे वारिमइ, वारिमई ! भुजयन्त्र भत्रायंत, भुअयंत । पतिगृहपईहर, पइहरं । गोरीगृहं गोरिहर, गोरोहरं । तृतीयसूत्रमें सन्धिव्यवस्था, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ एवं सप्तममं भी सन्धिव्यवस्थापर प्रकाश डाला गया है। नवम, दशम और एकादश सूत्र में उपसगंव्यवस्था बतलायी गयी है। चतुर्दश सूत्रसे विशति सूत्र पर्यन्त शब्दोंके आदेशका कथन आया है । इक्कोस और बाइस सूत्रमें अनुस्वारव्यवस्थाका कथन है। इसके पश्चात् शब्दोंके आदेशोंका निरूपण किया गया है । अध्यायके अन्तमें कतिपय विशेष शब्दोंकी व्यवस्था बतलायी गयी है। तथा दन्त्य नकारके स्थानपर मधन्य णकारका कथन आया है । इस प्रकार प्रथम अध्यायमें स्वर और व्यम्जनोंको व्यवस्था बतलायो गयी है। द्वितीय अध्यायके प्रारम्भमें मृदुत्व आदि पांच शब्दोंमें संयुक्त वर्णके स्थान पर ककारको व्यवस्था बतलायी गयो है । को वा मृदुत्त्व-रुग्ण-दष्ट-मुक्तसक्तेषु ।। १ ।। मृदुत्त्वादिषु पञ्चसु शब्देषु यः संयुक्तो वर्णस्तस्य ककारो भवति वा । मदत्त्वं माउत्तणं माउक्के, रुज्यतेस्म रुग्ण:-भुग्णपर्यायः (१) रामादिना वक्रीभूते लुम्गो लुक्को । दष्ट:-दट्ठो डक्को, मुक्तः-मुत्तो-मुक्को, शक्तः सत्तो सक्को । खः क्षस्य झछौ च क्वचित् ।। २ ।। क्षकारस्य खकारो भवति । झछौ च क्वचिद्भवतः लक्षणं-लक्खणं, क्षयः खो, क्षीयते-झिज्जइ छिज्जइ खिज्जइ, क्षीणं-झीणं छीणं स्वीणं । इसी प्रकार इस अध्यायमें स्क, क, स्थ, स्फ, स्त आदिके विकारका भी अनुशासन वर्णित है। संयुक्त वोकी व्यवस्था विस्तारके साथ बतलायी गयी प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३९९

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