Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 412
________________ है। अव्ययोंके निपातकी व्यवस्था १७१वें सूत्रसे २१३वे सूत्र तक वर्णित है। इसप्रकार इस प्राकृतव्याकरणमें स्वर ओर व्यञ्जन परिवर्तनके साथ शब्दरूप एवं अव्ययोंका कथन आया है। धातुरूप सदाकृदन्तप्रत्ययोका अनुशासन इसमें वणित नहीं है। इस व्याकरणके दो ही अध्याय उपलब्ध है, शेष दो अध्याय अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं। ये दो अध्याय जेन सिद्धान्त भवन बारा, एवं व्यावरके ग्रन्थागरमें उपलब्ध हैं। श्रीपालचरित---इस चरितकाव्यके आरम्भमें मंगलाचरण पद्यबद्ध है तथा अन्तमें प्रशस्ति भाग भी पद्यमें दिया गया है। मध्यका कथाभाग संस्कृत-गद्यमें लिखा गया है। श्रीपालके पुण्य चरितका अंकन इस काव्यमें है । सिद्धचक्रविधानके महात्म्यको दिखलानेके लिये यह काव्यग्रन्थ लिखा गया है । अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है सिद्धचक्रवतात्सोऽयमीदशाऽभ्युदयो बभौ । निःश्रेयसमितोऽस्मभ्यं ददातु स्वर्गात प्रभुः ।। यशोधरधरित-पुण्यपुरुष यशोधरको कथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंशके जैन कवियोंको विशेष रुचिकर रही है। यही कारण है कि यशोधरके रितको लेकर अनेक काव्य लिखे गये हैं। आरम्भमें नमस्कारात्मक पद्य लिखे गये हैं, जिनमें विद्यानन्द, अकलंक, समन्तभद्र, उमास्वामी, भद्रबाह, गुप्तिगप्त आदिका स्मरण किया गया है । अन्तिम प्रशस्तिमें श्रुतसागरने अपना परिचय लिखा है। इस परिचयमें गुरुपरम्परा एवं अपना पाण्डित्य बतलाया गया है । अहिंसावतका माहात्म्य बतलानेके लिये यशीघरको कथा विशेष आकर्षक है। यह कथा वहीं है, जिसका अंकन सोमदेवते अपने यशस्तिलकचम्पू किया है। अतस्कन्धपूजा-श्रुतस्कन्धका पूजन निबद्ध किया गया है। श्रुतके माहात्म्यके साथ श्रुतज्ञानके पदों और अक्षरोंकी संख्या भी बतलायो गयी है । यह छोटी-सी कृति है, इसको पाण्डुलिपि बम्बईके सरस्वतीभवनमें है। वतकयाकोश-श्रुतसागरने आकाशपञ्चमी, मुकुटसप्तमी, चन्दनषष्ठी, अष्टालिका, ज्येष्ठजिनवर, रविव्रत, सप्तपरमस्थान, अक्षयनिधि षोड़शकारण, मेघमाला, लब्धिविधान, पुरन्दरविधान, दशलाक्षणीव्रत, पुष्पाञ्जलिव्रत, मुक्तावलीवत, निदुःखसप्तमी, सुगन्धदशमी, श्रावणद्वादशी, रत्नत्रय, अनन्तव्रत, अशोकरोहिणी, तपोलक्षणपंक्ति, मेरुपंक्ति, विमानपंक्ति और पल्लिविधान व्रतोंको कथाएं लिखी हैं । इन कथाओंकी संख्या २४ है। पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीने इन कथाग्रन्योंको स्वतन्त्ररूपमें स्थान दिया है और एक कथाकोश म मानकर २४ कथाग्रन्थ माने हैं। उन्होंने बताया है कि भिन्न-भिन्न कथाएं ४०० : तीर्थकर महावीर और उनको बाचार्य परम्परा

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