Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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भिन्न-भिन्न व्यक्तियोंके लिये भिन्न-भिन्न महानुभावों के अनुरोधसे लिखी गयी हैं । अतएव वे स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं ।
जैन ग्रन्थप्रशस्ति संग्रह प्रथम भाग में १४३ ग्रन्थसंख्यासे १६६ ग्रन्थ संख्यातक २४ कथाग्रन्थोंकी प्रशस्तियाँ संकलित की गयी हैं। ज्येष्ठजिनवरव्रतकथा के आदिमें मंगलाचरण करते हुए लिखा है
ज्येष्टं जिनं प्रणम्यादाव कलंककलध्वनि । श्रीविद्यादिनंदिनं ज्येष्ट जिनद्रतमथोच्यते ॥ १ ॥
प्रायः प्रत्येक कथाग्रन्थ के अन्तमें अंकित प्रशस्ति में श्रुतसारकी गुरुपरम्परा उपलब्ध होती है । इन कथाग्रन्थोंकी शैलीसे भी इनका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है । प्रत्येक कथा के अन्त में, जो प्रशस्ति भाग दिया गया है, वही उसका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करता है । ये कथाएं चांद कथाकोशके रूपमे लिखी जातीं, तो प्रत्येक कथाके अन्त में प्रशस्ति देनेकी आवश्यकता नहीं थी । रत्नत्रयकथा, अनन्तव्रतकथा और अशोक रोहिणीकथा के अन्तमें दी गयी प्रशस्तिको उदाहरणार्थ प्रस्तुत करते हैं
सर्वज्ञसारगुणरत्नविभूषणांम
विद्या दिनदिगुरुरुतरप्रसिद्धः । शिष्येण तस्य विदुषा श्रुतसागरेण रत्नत्रयस्य सुकथा कथितात्मसिद्धये ॥
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सूरिर्देवेन्द्रको तिविबुधजननुतस्तस्थ पट्टाब्धिचंद्रो रुद्री विद्यादिनंदा गुरुरमलतपा भूरिभव्याब्जभानुः । तत्पादांभोजभृंगः कर्त्तामुष्याऽनन्तव्रतस्य श्रुतसमुपपदः सागरः शं क्रियाद्वः ॥
कमलदल्लसल्लोचनश्चंद्रवक्त्रः
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गच्छे श्रीमति मूलसंघतिल के सारस्वते निर्मल तत्त्वज्ञाननिधिर्बभूव सुकृतो विद्यादिनन्दी गुरुः । तच्छिष्यश्रुतसागरेण रचिता संक्षेपतः सत्कथा
रोहिण्या: श्रवणामृतं भवतु वस्तापच्छिदं संततम् ॥ उक्त दोनों प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है कि ये ग्रन्थ स्वतन्त्र हैं ।
श्रुतसागर की शैली और जैन संस्कृतिको देन श्रुतसागरकी भाषा और शैली सुबोध है । उनकी शैलोमें कहीं भी जटिलता नहीं है । स्वतन्त्ररूप से लिखे गये चरित और कथाग्रन्थों में भाषा की प्रौढ़ता पायो जाती है । यथा
श्रीमद्वीर जिनेन्द्र शासन - शिरोरत्नं सतां मंडनं साक्षादक्षयमोक्षकारि करुणा कृन्मूलसंघेऽभवत् ।
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प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापीषकाचार्य: ४०१