Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 387
________________ डाला है। भट्टारक शुभचन्द्रने अपनी कीर्तिकेयानुपेक्षाकी संस्कृतटोकामें इनकी प्रशंसा की है भट्टारकपदाधीशाः मूलसंघे विदांवगः । रमावोरेन्दु-चिद्रूपाः गुरवो हि गणेशिनः ॥ भद्दारक सुमतकीतिने भी इन्हें वादियों के लिये अजेय बतलाया है। प्राकृतपंचसंग्रहको टोकामें इन्हें यशस्वी, अप्रतिम विद्वान बतलाया है दुरदुर्वादिकपर्वतानों वज्रायमानो बरबीरचन्द्रः। तदन्वये सूरिवरप्रधाना ज्ञानादिभूषो गणिगच्छराजः ।। लक्ष्मीचन्द्रक शिष्य होने के कारण वीरचन्द्रका समय वि० सं० १५५६. १५८२ के मध्य है। इनके द्वारा चित कृतियोंमें जो समय प्राप्त होता है, उससे भी पनामा कार्यकाल नि. दीपाली कालगन्दी सिद्ध होता है। रचनाएँ आचार्य वीरचन्द्र संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और गुजरातीके निष्णात बिद्वान थे । इनके द्वारा लिखित आठ रचनाएँ प्राप्त है। १. वीरविलासफाग २. जम्बूस्वामोवेलि ३. जिनान्तर ४. सीमन्धरस्वामीगीत ५. सम्बोधसत्ताणु ६. नेमिनाथरास ७. चित्तनिरोधकथा ८. बाहुबलिवेलि १. वीरविलासफाग-इस काव्यमें रखें तीर्थकर नेमिनाथके जीवनकी एक घटना वर्णित है । इस फाग में १३७ पद्य हैं । रचनाके प्रारम्भमें नेमिनाथके सौन्दर्य एवं शक्तिका वर्णन है, तत्पश्चात् राजुलको सुन्दरताका चित्रण किया गया है। विवाहके अवसर पर नगरकी शोभा दर्शनीय होती है। बारात बड़ी साज-सज्जाके साथ पहुंचती है, पर तोरणद्वारके निकट पहुँचनेके पूर्व ही पशुचीत्कारको सूनकर नेमिनाथ विरक्त हो जाते हैं। जब राजलको उनके वैरा ग्यकी घटना ज्ञात होती है, तो वह घोर विलाप करने लगती है। वह स्वयं ____ आभूषणोंका त्याग कर तपस्विनी बन जाती है। आचार्यने नेमिनाथके तपस्वी प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३७५

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