Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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“तत्पट्टोदयाचलबालभास्कर - प्रवरपरवादिगजयूथकेसरि-मंडपगिरिमंत्रवादसमस्याप्त चन्द्रपूर्णविकटवादि — गोपाचल दुर्ग मेघा कर्ष कभविकजन-सस्यामृतवाणिवर्षणसुरेंद्रनागेंद्रमृगेंदादिसेवितचरणारविंदानां ग्यासदीन सभामध्यप्राप्त सन्मानपद्यावत्युपासकानां श्रीमल्लिभूषणभट्टारकवर्याणाम् ॥"
स्पष्ट है कि मल्लिभूषण अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य और धर्मप्रचारक थे । इनके पट्टशिष्य लक्ष्मीचन्द्र हुए। इसी भट्टारकशाखा में एक अन्य विद्या - नन्दि भी हुए हैं । इन्होंने वि० सं० १८०५ में सूरत में एक आदिनाथमूर्ति स्थापित की थी ।
आचार्य वीरचन्द्र
भट्टारकीय बलात्कारगण सूरत शाखाके भट्टारक देवेन्द्रकीतिकी परस्परा में लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य आचार्य वीरचन्द्र हुए हैं। वीरचन्द्र अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् थे । व्याकरण एवं न्यायशास्त्र के प्रकाण्डवेत्ता था। छन्द, अलंकार एवं संग सास्ती के बाद वाया में भी वे निपुण थे । साधुजीवनका निर्वाह करते हुए वे गृहस्थोंको भी संयमित जीवन यापन करनेको शिक्षा देते थे । भट्टारकपट्टावली में उनका परिचय निम्न प्रकार प्राप्त होता है
श्रीलक्ष्मीचंद्र | नाति श्रृंगार |
श्रीवीरचंद्र सूरी मणी चित्तनिरोध विचार
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सूरि श्रीमल्लिभूषण जयो जयो तास वंश विद्यानिलु लाड
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"तद्वंशमंडनकंदर्पदलन विश्वलो कहृदय रंजन - महाव्रसिपुरंदराणां नवसहस्रप्रमुख देशाधिपतिराजाधिराज श्री अर्जुनजीयराजसभामध्य प्राप्त सन्माना षोडशवर्षपर्यन्तशाकपाकपक्वान्नशाल्योदनादिसर्पिः प्रभूतिस रसाहारपरिवर्जितानां....... सकलमूलोत्तरगुणगणमणिमंडितविबुधवरश्रीषोरचंद्रभट्टा रकाणाम्” ।
उपर्युक्त प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि आचार्य वीरचन्द्रने नवसारीके शासक अर्जुन जीवराजसे सम्मान प्राप्त किया था तथा १६ वर्षो तक नीरस आहारका सेवन किया था । वीरचन्द्रकी विद्वत्ताके सम्बन्ध में अन्य विद्वानोंने भी प्रकाश
१. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ४५८ । २. वही, लेखांक, ४७८, ४७९ ।
३७४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा