Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अर्थात जिसप्रकार जलदसे चन्दमा समुद्भूत होता है उसी प्रकार शुभपन्द्रमुनिराजसे जिनचन्द्र उत्पन्न हुए। ये स्याद्वादरूपी गगनमंडल में विहार
करनेवाले मुनिराजोंके अलंकारस्वरूप, सदाचारयुक्त, भव्यजनोंके बांधव । रूप एवं समस्त कला और शास्त्रोंके विज्ञ हुए। इनकी निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध हैं
१. सिद्धान्तसार २. जिनचतुर्दिशतिस्तोत्र
१. सिद्धान्तसार-सिद्धान्तसारमें ७१ गाथाएं हैं । इस ग्रन्थ पर ज्ञानभूषणकी संस्कृत्तटीका भी है। श्री पण्डित नाथूराम प्रेमीने सिद्धान्तसारादिकी भूमिकामें शुभचन्द्राचार्यके शिष्य और पण्डित मेषावीके गुरु जिनचन्द्रको हो इस कृतिका लेखक माना है। यों तो उन्होंने भास्करनन्दिके गुरु जिनचन्द्रके भी लेखक होनेकी सम्भावना व्यक्त की है, पर उनका अभिमत मेधावीके गुरु जिनचन्द्रभट्टारकको ही इसका रचयिता माननेकी ओर अधिक है। सिद्धान्तशास्त्रके संस्कृतटीकाकार शानभूषणका समय वि० सं० १५३४-१५६१ है । इस प्रकार टीकाकार और मलग्रन्य रचयिता समसामयिक सिद्ध होते हैं।
सिद्धान्तसारमें वर्णित विषयोंका अंकन प्रथमगाथामें ही कर दिया गया है। बताया है
जीवगुणस्थानसंशापर्याप्तिप्राणमार्गणानयोनान् ।
सिद्धान्तसारमिदानों भणामि सिद्धान् नमस्कृत्य ।। अर्यात् जोवसमास, गुणस्थान, संज्ञा, पर्याप्ति, प्राण और मार्गणाओंका इसमें वर्णन किया गया है। १४ गुणस्थानोंमें चतुर्दश मार्गणाओंका सुन्दर विवेचन आया है। इस प्रकार मार्गणाओंमें जीक्समासोंकी संख्या भी दिखलायी गयी है । ७८वीं गाथामें लेखकका नाम अंकित है
पवयणपमाणलक्षणछंदालंकाररहियहियएण ।
जिणइंदेण पउत्तं इणमागमभत्तिजुत्तेण ॥ २. जिनचतुविशतिस्तोत्र--संस्कृत भाषामें २४ तीर्थंकरोंकी स्तुतियां निबद्ध की गयी हैं। यह स्तोत्र जयपुरके विजयराम पाण्ड्याके शास्त्रमण्डारके एक गुटकेमें संग्रहीत है।
जिनदेवके शिष्योंमें ररनकोति, सिंहकोति, प्रमाचन्द्र, जगतकोति, चारुकोति, जयकीर्ति, भीमसेन और पण्डित मेधावीके नाम उल्लेखनीय हैं । रस्तकोतिने वि० सं० १५७२में नागौरमें भट्टारक गद्दीकी स्थापना की । सिंहकीर्तिने
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३८३