Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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भट्टारक विजयकीर्ति
भट्टारक सकलकीर्तिने अपने त्याग एवं विद्वत्तापूर्ण जीवनसे गुजरात और राजस्थान में भट्टारक संस्थाको लोकप्रिय बना दिया था। इनके पश्चात् भुवनकीर्ति और ज्ञानभूषणने भी जैनपरम्परा के प्रचार और प्रसार में पूर्ण योगदान दिया । विजयकीर्ति भट्टारक ज्ञानभूषण के शिष्य थे और सकलकीर्ति द्वारा स्थापित भट्टारकगद्दी पर आसीन हुए थे। विजयकीर्ति के प्रमुख शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र थे, जिन्होंने अपने गुप्त की है।ट्टारक विजयकीर्तिके प्रारम्भिक जीवनके सम्बन्धमें निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं होती । पर शुभचन्द्र के गीतोंमें पाये जानेवाले उल्लेखोंसे यह ज्ञात होता है कि इनके पिताका नाम शाहगंग और माताका नाम कुँअरि था। इनका शरीर कामदेव के समान सुन्दर था । बाल्यकाल में इन्होंने विशेष अध्ययन नहीं किया था, पर भट्टारक ज्ञानभूषण के सम्पर्क में आते ही इन्होंने गोम्मटसार, लब्धिसार और त्रिलोकसार जैसे सैद्धान्तिक ग्रन्थोंके साथ न्याय, काव्य, व्याकरण आदि विषयोंका भो अध्ययन किया था । युवावस्था में ही इन्होंने साधुजीवन ग्रहण कर लिया था और पूर्णतः संयमका पालन कर कठोर साधना स्वीकार की थी ।
विजयकीर्तिकी साधनाका वर्णन आचार्य शुभचन्द्र ने रूपक काव्य के रूपमें किया है। बताया है कि जब कामदेवको आचार्य विजयकीतिको सुन्दरता एवं संयमका ज्ञान हुआ तो वह ईर्ष्यासि जलभुन गया और क्रोधित होकर उसने उन्हें संयमसे विचलित करनेका निश्चय किया । उसने देवाङ्गनाओंको बुलाया और उन्हें विजयकीर्ति संयमको भंग करनेका आदेश दिया । विजयकी तिकी साधना के समक्ष देवाङ्गनाएँ अपने क्रियाकलाप में निष्फल हो गयीं। इसके पश्चात् कामदेवने क्रोध, मान, मद एवं मिथ्यात्वकी सेना एकत्र की। चारों ओर वसन्त ऋतु व्याप्त हो गयी और अमराइयों में कोयलको मधुर कूज सुनायी पड़ने लगी । रणभेरी बज उठी और आचार्य विजयकीतिको कामदेवकी सेनाने आवेष्टित कर लिया । क्रोध, मान आदि विकारोंने अपने-अपने प्रहार आरम्भ किये, पर विजयकीति के संयम के समक्ष कामदेवका एक भी सैनिक ठहर न सका। मोहसेना में भगदड़ मच गयो । विजयकीर्ति ध्यान में तल्लीन हो गये । उनके समा, दम और यमके समक्ष मदनराज पराजित हो गया तथा विजयकीर्तिके चारित्रकी निर्मलता सर्वत्र व्याप्त हो गयी । श्रेणिकचरितमें विजयकीतिको यतिराज, पुण्यमृति आदि विशेषणों द्वारा उल्लिखित किया है
जयति विजयकीर्तिः पुण्यमूर्तिः सुकीर्तिः, जयतु च यतिराजो भूमिपैः स्पृष्टपादः ।
३६२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा