Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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विन्ध्यगिरिके एक अभिलेखसे वर्द्धमान भट्टारकका समय शक संवत् १२८५ ( ई० सन् १३६३) सिद्ध होता है। श्री डॉ० ए० एन० उपाध्येने जटासिनन्दी द्वारा विरचित वराङ्गचरितकी अंग्रेजी प्रस्तावना में भट्टारक ईमानका समय १३वीं शतोके पश्चात् हो अनुमानित किया है । अतएव वराङ्गचरित महाकाव्य के रचयिता बर्द्धमान भट्टारकका समय ई० सन्की १४वीं शती है।
रचना
भट्टारक वर्द्धमानने संस्कृत भाषा में 'वरांगचरित' नामक महाकाव्य लिखा है । इसमें १३ सगँ हैं। सगों का नामकरण कथावस्तुके आधारपर किया गया है । वरांग, २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ और श्रीकृष्णके समकालीन धोरोदात्त नायक हैं। इनको कथावस्तु कवियोंको बहुत प्रिय रही है। यही कारण है कि ७वीं शती से ही उक्त नायकपर महाकाव्य लिखे जाते रहे हैं । संस्कृत के अतिरिक्त कन्नड़में धरणि पं० का वराङ्गचरित एवं हिन्दीमें लालचन्द्र और कमलनयनकृत वराङ्गवरित भी उपलब्ध हैं । प्रस्तुत काव्यका प्रमाण १३८३ श्लोक है ।
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इस काव्य में कथाको अन्विति सर्गविभाजन और छन्दोंमें अभिव्यन्जन ये तीनों मिलकर प्रबन्धके बाह्य रूपका निर्माण करते हैं। विचारप्रधान होनेसे इस काव्य में प्रकृति-चित्रणकी अल्पता है। फिर भी भावात्मक चित्रोंकी कमी नहीं है । कथावस्तु भी श्रृंखलाबद्ध है । दर्शन या धर्मतत्त्व घटनाओंके क्रममें बाधक नहीं है । घटनाओं, प्रसंगों और वर्णनोंको इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है, जिससे मार्मिक स्थल स्वयं उपस्थित होते गये हैं। राजकुमार वरांग जन्म लेता है । उसका १० सुन्दरियोंके साथ विवाह हो जाता है और उसकी योग्यता से प्रभावित होनेके कारण बड़े पुत्रके रहते हुए भी राजा धर्मसेन उसे युवराज बना देता है । विमाताको यह बात खटकती है । उसका सौतेला भाई सुषेण मी राजकुमार वरांगसे ईर्ष्या करता है । विमाता और भाई दोनों मन्त्री से मिलकर षड्यन्त्र रचते हैं और एक दुष्ट घोड़े द्वारा कुमारका अप हरण करा देते हैं । घोड़ा एक अन्धकूपमें कुमारको लेकर कूद जाता है । उस अन्धकूपसे निकलने में असमर्थ रहनेसे उस दुष्ट घोड़ेकी मृत्यु हो जाती हैं और कुमार किसी प्रकार बचकर निकल आता है। इस घोर अरण्यमें उसे व्याघ्र, अजगर, भिल्ल आदिका सामना करना पड़ता है। वह किसी प्रकार इन संकटोंसे मुक्ति प्राप्त करता है । कविने इन घटनाओंको सप्राण बनानेके १. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख - सं० १११, पृ० २२४ ।
३६० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा