Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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यह टीका शुभचन्द्रके शिष्य वर्णी वीमचन्द्रके आपसे लिखी गयी है। टोका सरल और ग्रन्थके हार्दको स्पष्ट करती है।
जीवन्धरचरित-कुमार जीवन्धरका जीवनवृत्त संस्कृप्तके कवियोंको विशेष प्रिय रहा है। शुभचन्द्रने पुण्यपुरुष जीवन्धरके आख्यानको ग्रहण कर १३ सर्गप्रमाण यह रचना लिस्त्री है। इसकी समाप्ति वि० सं० १६०३ में
चन्द्रप्रभचरिस-अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभके पावन चरितको १२ सगोमें निबद्ध किया गया है। ग्रन्यके अन्तमें आचार्यने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि न तो छन्द-अलंकारका परिज्ञान है, न काव्यशास्त्रका, न जैनेन्द्रव्याकरणका, न कलापका और न शाकटायनका। त्रिलोकसार एवं गोम्मटसार जैसे महान ग्रन्थोंका भी अध्ययन नहीं किया है। यह रचना में भक्तिवश लिख रहा हूँ।
चन्दनाचरित यह एक कथाकाव्य है। इसमें सती चन्दनाके पावन एवं उज्जवल जीबनका चित्रण किया गया है । काव्यको कथावस्तु पाँच स!में विभक्त है । इसकी रचना वागड प्रदेशके डूंगरपुर नगरमें हुई है 1
शास्त्राण्यनेकान्यवगाह्य कृत्वा पुराणसल्लक्षणकानि भूयः ।
सच्चंदनाचारुचरित्रमेतत् चकार च श्रीशुभचन्द्रदेवः ।। पाण्डवपुराण-जैन साहित्यमें कौरव और पाण्डवोंकी कथाका आरम्भ जिनसेन प्रथमके हरिवंशपूराणसे होता है । स्वतन्त्ररूपमें इस चरितका प्रणयन देवप्रभ सूरिने वि० सं० १२५० में किया है। पश्चात् आचार्य शुभचन्द्रने वि० सं० १६०८ में इस चरितकी रचना की है। कथाके प्रारम्भमें भोगभूमिकालमें होनेवाले १४ कुलकरोंके उत्पत्तिक्रमके कथनके पश्चात् बताया है कि ऋषभदेवने इक्ष्वाकु, कौरव, हरि और नाथ नामक चार क्षत्रियगोत्र स्थापित किये। कुरुवंशकी परम्परामें सोमप्रभ, जयकुमार, अनन्तवीर्य, कुरुचन्द्र, शुभंकर और धुतिकर आदि राजाओंके पश्चात् विश्वसेन राजाके पुत्र शान्तिनाथ तीर्थङ्कर हए। इसी परम्परामें भगवान् कुन्थ और अर्हनाथ तीर्थकर उत्पन्न हुए। इसके पश्चात् इस परम्परामें शान्तनु राजा उत्पन्न हुआ । इसकी पत्नीका नाम सवको था। इन दोनोंके परासर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। परासरका विवाह रनपुरनिवासी जननामक विद्याधरकी पुत्री गङ्गाके साथ हुआ । इनके पुत्रका नाम गाङ्गेय भीष्म पितामह था । परासर राजाने योग्य समझकर गाङ्गेयको युवराजपदपर प्रतिष्ठित किया । एक दिन परासर यमुनाके तटपर गये और वहाँ वे धीवरकी कन्याको देखकर मोहित हो गये। कालान्तरमें गाङ्गेयको
प्रधाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३६५