Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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यथासम्भव सर्वत्र ज्ञातव्यः ।" सन्धि आदिके सम्बन्धमें इसी आशयका कथन वृहद्रव्यसंग्रहको टीकामें भी पाया जाता है। बताया है—अत्र ग्रन्थे विवक्षितस्य सन्धिर्भवति' इति ववनात्पादानां सन्धिनियमो नास्ति । वाक्यानि च स्तोकस्ताकानि कृतानि सुखबोधनार्थम् । तथैव लिङ्गवचनक्रियाकारकसम्बन्धसमासविशेषणवावयसमाप्त्यादिषणं तथा च शुद्धात्मादितत्त्वप्रतिपादनविषये विस्मतिदूषणं च विद्वद्भिर्न ग्राह्यमिति"। ____ इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि ब्रह्मदेवकी टीकाशेली भाष्यात्मक होनेपर भी सरल है। व्याख्याएं नये रूपमें प्रस्तुत की गयी हैं । अन्य ग्रन्थोंसे जो उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं, उनका विषयके साथ मेल बैठता है। टीकाकारके व्यक्तित्वके साथ मूललेखकका व्यक्तित्व भी ब्रह्मदेचमें समाविष्ट है ।
रविचन्द्र आचार्य रविचन्द्र अपनेको मुनीन्द्र कहते हैं । उनका निवासस्थान कर्नाटकप्रान्तके अन्तर्गत 'पनसोज' नामका स्थान है। कर्नाटकके शिलालेखोंमें रविचन्द्रका नाम कई स्थानोंपर आया है। अभिलेखोंसे इनका समय ई. सन्की दशम शताब्दी सिद्ध होता है। धारवाड़के सन् १९६२ ई० के एक अभिलेख में रविचन्द्र मुनिका उल्लेख आया है। तृतीय रवीचन्द्रका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके अभिलेख सं० .३ में आया है। इस अभिलेखके अनुसार सन् ११३०में वे वर्तमान थे। एक अन्य रविचन्द्रका उल्लेख मासोपवासी सैद्धान्तिकके रूप में प्राप्त होता है। इस अभिलेख में माघनन्दिकी गुरुपरम्परा दी गयी है। बताया है कि नन्दिसंघ बलात्कारगणके वत्तमान मुनि होय्सल राजाओंके गुरु थे। श्रीधर विद्यपद्ममन्दि विद्यदासुपूज्य सैद्धान्तिशुभचन्द्र-भट्टारक-अभयनन्दिभट्टारक-अरुहदि सिद्धान्ति, देवचन्द्र अष्टोपवासि कनक चन्द्र, नयकीति, मासोपवासि रविचन्द्र, हरियनन्दि, श्रुतकीति विद्यवीरनन्दिसिद्धान्ति, गण्डविमुक्त, नेमिचन्द्रभट्टारक,
१. परमार्थप्रकाश, टी० पृ० ७-८ } २. बृहद्व्य संग्रह, गाथा ५८, पृ० २४० ॥
Epigraphic Carcatica, XII, Gulbi Taluk, NO 57, Journal of ___the Bombay Branch of the R. A.S, X, PP. 171-2, 20+ t
डा० ए० एन० उपाध्ये, आराधनासमुच्चय, योगसारसंग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ, सन्
.१९६७, पृ०७। ४. दक्षिणभारतीय एपिग्राफिकाका वार्षिक प्रतिवेदन, सन् १९३४-३५, पृ० ७ । अभि
लेखसंख्या ४३२ ।
३१६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा