Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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चरणोंमें नमस्कार किया करते थे । इस कथन की पुष्टि दशभक्त्यादिमहाशास्त्रसे भी होती है
राजाधिराजपरमेश्वरदेवरायभूपालमौलिलसदंधिसरोजयुग्मः । श्रीबद्ध मानमुनि वल्लभमोदय मुख्यः श्रीधर्मभूषण सुखी जयति क्षमादयः " ।।
उपर्युक्त पद्यसे स्पष्ट होता है कि विजयनगरनरेश प्रथम देवराय ही 'राजाधिराजपरमेश्वर' को उपाधिसे विभूषित थे । इनका राज्यकाल सम्भवतः ई० सन् १४१८ तक रहा है और द्वितीय देवरायका समय ई० सन् १४१९ से १४४६ तक माना जाता है । अतः इन उल्लेखोंके आधारसे यह ध्वनित होता है कि वृद्ध मानके शिष्य धर्मेभूषण ही प्रथम देवरायके द्वारा सम्मानित थे । अतएव अभिनव धर्मभूषण प्रथम देवरायके समकालीन हैं। इस प्रकार इनका अन्तिम समय ई० सन् १४१८ आता है ।
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उपर्युक्त विवेचनके आधारपर अभिनव धर्मभूषण का समय ई० सन् १३५८१४१८ है | श्री डॉ० दरबारीलाल कोठियाने बताया है कि 'न्यायदीपिका पृ० २१ में 'बालिशाः' शब्दोंके साथ सायणके सर्वदर्शनसंग्रहसे एक पंक्ति उद्धृत की है । सायणका समय शक संवत् १३वीं शताब्दिका उत्तरार्द्ध है क्योंकि शक सं १३१२का एक दानपत्र मिला है, जिससे वे इसी समयके विद्वान सिद्ध होते हैं । न्यायदीपिका में आया हुआ बालिशाः पद अभिनव धर्मभूषणको सायणका समकालीन सिद्ध करता है। दोनों ही विद्वान विजयनगरके रहनेवाले थे । अतएव उनका समकालीन होना भी सिद्ध है ।'
रचनाएँ
अभिनव धर्मभूषण राजाओं द्वारा मान्य एवं लब्धप्रतिष्ठ यशस्वी विद्वान थे। इनके द्वारा रचित न्यायदीविकानामक एक न्यायग्रन्थ उपलब्ध होता है । इस ग्रन्थ में तीन प्रकाश या परिच्छेद है । प्रथम प्रकाशमें प्रमाणका सामान्य लक्षण, उसकी प्रभाणता, बोद्ध, भाट्ट, प्राभाकर और नैयायिकों द्वारा मान्य प्रमाणलक्षणों की समीक्षा की गयी है । द्वितीय प्रकाशमें प्रमाणके भेद और प्रत्यक्षका लक्षण वर्णित है । बौद्धों द्वारा अभिमत प्रत्यक्षलक्षणका निराकरण करनेके पश्चात् योगाभिमत सन्निकर्षका निराकरण किया गया है। प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्षके स्वरूप और भेदोंका कथन किया है । इस प्रकाशके अन्तमें सर्वज्ञसिद्धि एवं अरहन्तको सर्वेश सिद्ध किया गया है ।
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१. प्रशस्तिसंग्रह जैन सिद्धान्त भवन, आरा, १० १२५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोवकाचार्य : ३५७