Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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का वर्णन है। प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध एवं अनुभागबन्धको अपेक्षासे ककि बन्धका वर्णन सुन्दर एवं बोधगम्य है। इसमें ५४७ पद्य हैं। तत्त्वार्थसारदीपक
जीव-अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वोंका १२ अध्यायोंमे वर्णन किया गया है। प्रथम सात अध्यायोंमें जीब एवं उसकी विभिन्न अवस्थाओंका चित्रण है। अष्टम अध्यायसे द्वादश अध्याय तक अजाब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षका क्रमशः वर्णन है। इस ग्रन्थको आचार्यने आध्यात्मिक रचना कहा है। परमात्मराजस्तोत्र
यह लघु स्तोत्र है । इसमें १६ पद्य हैं । रचना भावपूर्ण है।
आचार्यद्वारा लिखित पूजासाहित्य भी कम लोकप्रिय नहीं रहा है। नाम अनुसार, पंचपरमेष्ठी, अष्टलिका और सोलहकारण आदिको पूजाएँ अंकित हैं । द्वादशानुप्रेक्षामें अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व आदि भावनाओंका चित्रण किया गया है। इस प्रकार आचार्य सकलकीनिने सिद्धान्त, तत्वज्ञान, अध्यात्म, कर्मसिद्धान्त, आचार एवं चरितम्रन्थाकी रचना कर संस्कृतसाहित्यको समृद्ध किया है।
राजस्थानी भाषामें आचार्य सकलकीतिने गीत, रास और फाग विषयक रचनाओंका प्रणयन किया है । गीतों में लघुगीत और प्रबन्धगीत दोनों ही पाये जाते हैं। राजस्थानीके साथ गुजराती भाषाका प्रयोग भी जहाँ-तहाँ उपलब्ध होता है।
निःसन्देह आचार्य सकलकीति अपने युगके प्रतिनिधि लेखक हैं । इन्होंने अपनी पुराणविषयक कृतियोंमें आचार्यपरम्परा द्वारा प्रवाहित विचारोंको ही स्थान दिया है। चरित्रनिर्माण के साथ सिद्धान्त, भक्ति एवं कर्मविषयक रचनाएँ परम्पराके पोषणमें विशेष सहायक हैं । सिद्धान्तसारदीपक, तत्त्वार्थसार, आगमसार, कर्मविपाक जैसी रचनाओंसे जैनधर्मके प्रमुख सिद्धान्तोंका उन्होंने प्रचार किया है। मुन्याचार और श्रावकाचारपर रचनाएं लिखकर उन्होंने मुनि और श्रावक दोनोंके जोवनको मर्यादित बनानेकी चेष्टा की है। इनकी हिन्दीमें लिखित 'सारसोखामणिरास' और 'शान्तिनाथफाग' अच्छी रचनाएं हैं। इनमें विषयका प्रतिपादन बहुत ही स्पष्टरूपम हुआ है ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३३५