Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 359
________________ | 1 प्रद्युम्नचरित -- इस चरितकाव्य में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्नका जीवनचरित अंकित है | समस्त कथावस्तु १६ सर्गो में विभक्त है । इसका रचनाकाल वि० सं० १५३१ पौष शुक्ला त्रयोदशी बुधवार है । यशोधरचरित - यशोधरका जीवन जैन कवियोंको विशेष प्रिय रहा है । यशोधरके इस आख्यानको कविने आठ सर्गों में विभक्त किया है। रचनाकालपर प्रकाश डालते हुए कविने स्वयं लिखा है- वर्षे षटत्रिंशसंख्ये तिथिपरगणनायुक्त संवत्सरे (१५३६) वे | पंचम्या पोषकृष्णे दिनकरदिवसे बोतमस्य हि चंद्र | गोढिल्या : मेदपाटे जिनवरभवने शीतलेन्द्ररम्ये । सोमादिकीत्तिनेदं नृपवरचरितं निर्मितं शुद्धभक्त्या ।। गुर्वावलि - यह एक ऐतिहासिक रचना है। इसमें कविने अपने संघके पूर्वाचार्यो का संक्षिप्त वर्णन किया है। गुर्वावलि संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखी गयी है। हिन्दीमें गद्य-पद्य दोनोंका उपयोग किया गया है | इसकी समाप्ति वि० सं० १५१८में की गयी है। इसमें काष्ठासंघका इतिहास अंकित है । इस संघके नन्दीतटगच्छ, माथुरगच्छ, वागड़गच्छ एवं लाटबागड़ गच्छका परिचय दिया गया है । इस गुर्वावली में आचार्य अहंदूवलिको नन्दोतर गच्छका प्रथम आचार्य लिखा है । अनन्तर अन्य आचार्योंका संक्षिप्त इतिहास बतलाते हुए ८६ आचायका नामोल्लेख किया है और ८७वें आचार्य भट्टारक सोमकीर्ति ही बतलाये हैं । इस गच्छ के आचार्य रामसेनने नरसिंहपुरा जातिकी तथा नेमिसेनने भट्ट्टपुरा जातिकी स्थापना की थी । यशोधररास यह एक प्रबन्धकाव्य है । कविने इसमें प्रबन्धकाव्य के समस्त गुणों का समावेश किया है। समस्त काव्य १० ढालों (सर्गो) में विभक्त है । आचार्यने यशोधरको जीवनकथा सोधे रूपमें प्रारम्भ न होकर साधुयुगलसे कहलायी गयी है। इस कथाको सुनकर राजा मारिदप्त हिंसक जीवन छोड़कर अहिंसक बन जाता है ! वस्तुव्यापारोंका वर्णन कविने विस्तारपूर्वक किया है । त्रेपन क्रियागीत - श्रावकके पालन करने योग्य त्रेपन क्रियाओंका वर्णन इस गीतिकाव्य में किया गया है । वर्णनपद्धति गीतिकाव्यकी है। इस प्रकार कविने गीतिशैली में श्रावकाचारसम्बन्धी विशेषताओंका निरूपण किया है । ऋषभनाथकी धूलि - यह प्रबन्धकाव्य है और इसमें आदितीर्थंकर ऋषभ - देवका जोवनवृत्त वर्णित है । समस्त कथावस्तु चार ढालों या सगों में विभक्त है | कविने इस ग्रन्थका प्रारम्भ करते लिखा है हुए प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषणाचार्य : ३४७

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