Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
तत्पट्टाम्बुधिसच्चन्द्रः शुभचंद्रः सतां वरः । पंचायणदावाग्निः कामापसशनिः ।। तदीयपट्टाम्बरभानुमाली क्षमादिनानागुणरत्नशाली । भट्टारकः जिनचन्द्रनामा सैद्धान्तिकानां भुवि योऽस्ति सीमा ।।१७॥ स्याद्वादामतपानप्ततमनसो यस्यातनोत्सर्चतः, कोत्तिभूमितले सशाधवला सुज्ञानदानात्सतः । चार्वाकादिमतप्रवादितिमिरोष्णांशोभुनीन्द्रप्रभोः,
सूरिश्रीजिनचन्द्रकस्य जयतात्संघो हि तस्यानघः' ||१८|| इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि जिनचन्द्र वि० सं० १९१५ में विद्यमान थे। अतएव शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र भास्करनन्दिके गुरु सम्भव नहीं हैं ।
चौथे जिनचन्द्र श्रवणबेलगोलके अभिलेखसंख्या ५५ में द्वितीय माघन्दिके आचार्यके पश्चात् उल्लिखित हैं । पण्डित ए० शान्तिराज शास्त्रीने सुखवीधवृत्तिको प्रस्तावनामें इन्हीं जिमचन्द्रको भास्करनन्दिके गुरु होनेको सम्भावना व्यक्त की है। बताया है कि माधनन्दि आचार्य संवत् १२५० में जीवित थे। अत्तः इनके उत्तरकालमें होनेवाले जिनचन्द्रका समय संवत् १२७५ सम्भव है।
श्रवणबेलगोलाके उक्त अभिलेखका सम्भावित समय शक संवत् १०२२ (वि० सं० ११५७) है। उसमें उल्लिखित माधन्दिका समय संवत् १२५० कैसे हो सकता है। कर्नाटककविरितेके अनुसार एक माघनन्दिका समय ई० सन् १२६० है। वे माघनन्दिश्रावकाचारके कर्ता हैं और उन्होंने शास्त्रसारसमुच्चयपर कन्नड़में टीका लिखी है। पण्डित शान्तिराजजीका अभिप्राय सम्भवतः उक्त माघनन्दिसे ही है, पर अभिलेखमें प्रतिपादित माधनन्दि इनसे भिन्न हैं । अतः जिनचन्द्रका समय पण्डित शान्तिराजजी द्वारा निर्धारित सम्भव नहीं है। पुष्ट प्रमाणके अभावमें श्रवणबेलगोलाके अभिलेखमें निर्दिष्ट जिनचन्द्रको भास्करनन्दिका गुरु नहीं माना जा सकता । अभिलेखमें जिनचंद्रको व्याकरणमें पूज्यपादके समान, तकमें अकलंकके समान और काव्यप्रतिभामें भारविके समान बतलाया है, पर भास्करनन्दिके गुरु महासैद्धान्तिक हैं । इनके पाण्डित्यको जानकारी सुखबोधवृत्तिसे ही प्राप्त की जा सकती है।
भास्करनन्दि पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानंदके पश्चात् हुए हैं। यह उनकी टीकाके मंगलश्लोकमें आगत 'विद्यानन्दाः' पदसे स्पष्ट है । भास्करनन्दिने यशस्तिलक, गोम्मटसार, संस्कृतपञ्चसंग्रह, और वसुनन्दिप्रावकाचारके १. जैन सिद्धान्तभास्कर आरा, किरण २, भाग ११, पृ० १०९ । ३०८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा