Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
श्यकताके अनुसार लोकमानसको श्रद्धालु बनाये रखनेके लिये चमत्कारोंका प्रणयन किया है। यदि भट्टारक अपने युगमें लोकचेतनाका अध्ययन न करते, और तदनुकूल साहित्यका प्रणयन न करते, तो बहुत सम्भव है कि जैनधर्मके अनुयायियोंकी शृखला टूटने लगती। अतः परम्पराके निर्वाह के लिए भट्टारकोंको बाध्य होकर लोक-साहित्यका सृजन करना पड़ा।
परम्परापोषक आपागों द्वारा रनित नरिनकायोंमें काव्यात्मक अलंकृत शैलीका विकास नहीं हो पाया है। आचार्योंने पौराणिक कथाको ग्रहणकर वर्णन विस्तार और चमत्कारके बिना ही कथाको धाराको प्रवाहित किया है । परिणाम यह निकला है कि परम्परा-पोषक आचार्यो द्वारा रचित काव्य पुराण तक ही सीमित रह गये। काव्यचमत्कार एवं रसोबोधके लिए जिस सौन्दर्यानुभूतिको आवश्यकता रहती है और जिस सौन्दर्यानुभूतिकी अभिव्यञ्जनासे पौराणिक इतिवृत्तकाव्य बनता है, उसका प्रायः अभाव ही रह गया है । अनु ष्टुप्, उपजाति, वंशस्थ, शार्दूलविक्रीडित और मालिनी छन्दोंका ही प्रयोगपाया जाता है । छन्दवैविध्य और चित्रमयता प्रस्फुटित नहीं हो पायी है। कथावस्तुमें गहनताकी अपेक्षा व्यासका समावेश हया है। घटनाओं, पात्रों या परिवेशको सन्दर्भपुरस्सर व्याख्याके स्थानपर केवल वातावरणके सौरभका ही नियोजन हो सका है । अतः इस युगमें पुराण और काव्य साधारणीकरणको स्थितिको प्राप्त नहीं हो सके। मर्मस्पर्शी कथानकोंके स्थानपर अवान्तर और जन्म-जन्मान्तरके आख्यानोंका विस्तृत जाल इन आचार्यों की रचनाओं में गुम्फित है। जन्म-सन्तति, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पापका चित्रण विशेषरूपमें सम्पन्न हुआ है । लघुकाव्योंमें केवल कथामात्र हो लिखी गयी है। इसे हम पद्यबद्ध कथा कह सकते हैं। कथाको अलंकृत करने या रसमय बनानेका प्रयास नहीं किया गया है । कल्पनाशक्तिका विराटरूप, महद् उद्देश्य एवं विभिन्न मानसिक दशाएं प्रस्फुटित नहीं हो पायी हैं।
चरित और आचार मूलक रचनाओंमें श्रावकाचार मा मुन्याचारका वर्णन मिलता है । श्रावकाचारका आधार आचार्य समन्तभद्रका 'रत्ककरण्डश्रावकाचार' ही रहा है । इस क्षेत्रमें नयी उद्भावनाएं नहीं हो सकी हैं, पर इतना सत्य है कि श्रावकाचारके विषयका प्रचार इन परम्परापोषक आचार्यों ने विशेषरूपसे किया है। जीवनमूल्यों, आदर्शों और नैतिक मान्यताओंका स्पष्टीकरण विशेषरूपसे हुआ है।
संहिताविषयक रचनाएं विशेषरूपमें सम्पन्न हुई हैं। हमें जैन साहित्यमें दो प्रकारके जीवनमूल्य दृष्टिगोचर होते हैं। प्रथम प्रकारके वे जीवनमूल्य २९८ : तीर्थकर पहावीर और उनकी आचार्य-परम्परा