Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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तीर्थंकर ऋषभदेवके नामपर हुआ है और इसे संगीत स्वरोंमें प्राथमिकता दी गयो है । मुद्रालंकार द्वारा आचार्यने ऋषभस्वरको उत्पत्तिपर प्रकाश डाला है
नाभेस्समुदितो वायुः कण्ठशीर्षसमाहतः ।
ऋषभ विनदेद् यस्मात्तस्माद् ऋषभ ईरितः ॥ अर्थात् नाभिसे उठनेवाला वायु कण्ठ तथा शीषंभागसे समाहत होता है, सब ऋषभस्वरकी उ:शहता है। इस प्रकार ऋषभदेवके मंगलाचरणसे संगीत 'ऋषभ' स्वरका बोध कराया है।
स्वर, गीत, वाद्य और ताल इन चारोंनी सिद्धि नादके द्वारा ही सम्भव है। नादकी उत्पत्तिका कथन करते हुए लिखा है कि नाभिमें ब्रह्मस्थान है, जिसे ब्रह्मग्रन्यि माना जाता है, उस ब्रह्मग्रन्थिमें, उसके केन्द्र में प्राणको स्थिति है, उस केन्द्रस्थ प्राणसे अग्निको उत्पत्ति होती है । जब अग्नि और मारतका संयोग हो जाता है, तब नाद उत्पन्न होता है । 'नाद'के 'न' और 'द' ये दोनों वर्ण क्रमशः प्राणमारत और प्राणाग्निके वाचक हैं। नादके पांच भेद हैं.-१. अति सूक्ष्म २. सूक्ष्म ३, पुष्ट ४. अपुष्ट और ५. कृत्रिम । नाभिमें अतिसूक्ष्म, हृदय प्रदेश में सूक्ष्म, कण्ठमें पुष्ट, शिरोदेशमें अपुष्ट और मुख में कृत्रिम नादकी स्थिति नादभेदसे भासित होती है। यथा--
नाभौ यद् ब्रह्मणः स्थानं ब्रह्म ग्रन्थिश्च यो मसः । प्राणस्तन्मध्यवर्ती स्यादग्नेः प्राणात् समुद्भवः ||४|| अग्निमारुत्तयोर्योगाद् भवेनादस्य सम्भवः । नकार: प्राण इत्युक्तो दकारो वह्निरुच्यते ।।५।। अर्थोऽयं नादशब्दस्य संक्षेपात् परिकीर्तितः । स च पंचविधो नादो मसंगमुनिसम्मतः ।।६।। अतिसूक्ष्मश्च सूक्ष्मश्च पुष्टोऽपुष्टश्च कृत्रिमः । अतिसूक्ष्मो भवेनामी हृदि सूक्ष्मः प्रकाशते ॥७ पुष्टोऽभिव्यज्यते कण्ठे त्वपुष्टः शिरसि स्मृतः ।
कृत्रिमो मुखदेशे तु स्थानभेदेन भासते || ध्वनि चार प्रकारको बतलायी गयो है-१. काबुल-खाबुल, २. बम्बल, ३. नाराट और ४. मिश्रका ध्वनिके विचारक्रममें कण्ठसम्बन्धी गुण और अवगुणोंपर भी प्रकाश डाला गया है । कण्ठके १. माधुयं, २. श्रावकत्व, ३. स्निवत्व ४. घनता और ५. स्थानकत्रयशोभा ये पांच गण माने हैं तथा खेटि, स्वेगि और भग्न शब्द ये तीन कण्ठदोष बताये हैं। इन सभीको परिभाषाएं भी निबद्ध ३०४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा