Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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पंचमहाभूत इन्हींसे बने हैं। किन्तु जैनदृष्टिसे बुद्धि, अहंकार ये चैतन्यमय जीवके कार्य हैं, जड़ प्रकृति के नहीं । सांख्योंका दूसरा प्रमुख सिद्धान्त है सत्कार्यबाद। कार्य नया उत्पन्न नहीं होता, कारणमें विद्यमान ही रहता है। यह प्रत्यक्षव्यवहारसे विरुद्ध है । सांस्य पुरुषको अकर्ता मानते है बन्ध और भोक्ष पुरुषके नहीं होते, प्रकृतिके ही होते हैं । इस कथनकी भी जनदृष्टि से समीक्षा की गयी है।
बौद्धाभिमत क्षणिकवादका विवेचन करते हुए लिखा है कि बौद्ध आत्मा जैसा कोई शाश्वत तत्त्व नहीं मानते । रूप, संज्ञा, वेदना, विज्ञान, संस्कार इन पांच स्कन्धोंसे ही सब कार्य होते हैं। नित्य आत्माका अस्तित्व प्रत्यभिज्ञान गद्वार:
रिसे मिकताका निरज हो जाता है । आत्मा नित्य न हो, तो मुक्तिका प्रयास व्यर्थ हो जायगा और पूमर्जम भी घटित नहीं हो सकेगा। इस प्रकार विस्तारपूर्वक क्षणिकबादकी समीक्षा की है। यह विश्वतत्वप्रकाश भी किसी ग्रन्थका एक परिचछेद ही प्रतीत होता है । सम्भवतः पूर्ण ग्रन्थ आचार्यका दूसरा हो रहा होगा।
आचार्य नयसेन धर्मामतके रचयिता आचार्य नयसनका जन्मस्थान धारवाड़ जिलेका मूलगुन्दा नामक तीर्थस्थान है । उत्तरवर्ती कवियों ने उन्हें 'सुविनिकरपिकमाकन्द' 'सुकविज नमन:सरोजराजहंस', 'वात्सल्यरत्नाकर' आदि विशेषणोंसे विभषित किया है। नयोन के गरुका नाम नरेन्द्रसेन था। नरेन्द्रसेन मुनि उच्चकोटिके तपस्वी और द्वादशांग शास्त्रके पारगामी थे। नयसेनने इन्हें सिद्धान्तशास्त्रमें जिनसेनाचार्यके समान व्याकरण और आध्यात्मिक शास्त्रके पाण्डित्यमें पूज्यपादके समान एवं तर्कशास्त्रमें सुप्रसिद्ध दार्शनिक समन्तभद्राचार्य के समान बतलाया है । इन्हें 'विद्यचक्रवर्ती' भी कहा है।
नयसेनाचार्य, संस्कृत, तमिल और कन्नड़के धुरन्धर विद्वान थे । इन्होंने धर्मामृतके अतिरिक्त कन्नड़का एक व्याकरण भी रचा है । घर्मामुतके अध्ययनसे अवगत होता है कि प्रत्यरचनाके समय ये मुनि अवस्थामें थे। इन्होंने अपनेको तर्कवागीश' कहा है तथा अपनेको चालुक्यवंशके भुवनेक्रमल्ल (शक संवत् १०६९-२०७६) द्वारा बन्दनीय कहा है। यह राजा इनकी सेवामें सदा तत्पर रहता था । नयसेनाचार्य अपने समयके प्रसिद्ध आचार्य रहे हैं। स्थिति-काल
धर्मामृतमें सन्थरचनाका समय दिया हुआ है। इससे इनका समय ई० सन्की १२वीं शतीका पूर्वार्ध सिद्ध होता है । धर्मामृतमें बताया है२६४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा