Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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चतुर्थ माधवचन्द्र वे हैं, जिनका स्मरण दुर्गदेवने किया है । दुर्गदेवने श्रीनिवास राजाके राज्य में कुम्भनगरमें रिष्टसमुच्चयको रचना को थो । स्व. डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द्रन श्रीनिवास या लक्ष्मीनिवासको एक साधारण सरदार माना है और कुम्भनगरको भरतपुरके निलम्बाला तुम्भे गा कुम्टो कटा है। दुर्गदेवने अपने गुरुसंयमसेनके साथ माधवचन्द्रका भी स्मरण किया है। इन्होंने माधवचन्द्रके सम्बन्धमें लिखा है
__ जयउ जए जियमाणो संजमदेवो मुणीसरो इत्य ।
तहवि हु संजमसेणो माहवचन्दो गुरू सह य ।। अर्थात् संयमदेवके गुरु संघमसेन और संयमसेनके गुरु माधवचन्द्र बताये गये हैं। दुर्गदेवके गुरुका नाम संयमदेव है और दुर्गदेवका समय ई. सन् १०३२ है। अतएव माधवचन्द्रका समय इनसे ५० वर्ष पूर्व होना चाहिए । इस प्रकार ये माधवचन्द्र नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य माधवचन्द्रसे अभिन्न प्रतीत होते हैं।
एक अन्य माधवचन्द्रका निर्देश देवगढ़के ई. सन् १०८२ के अभिलेखमें आया है। मलसंघ देशीयगण पुस्तकगन्छ हनसोगेबलिके आचार्यके रूप में भी एक माषवचन्द्रका निर्देश प्राप्त होता है । विष्णवर्धन होयसलने अपने पुत्रके जन्मोपलक्ष्य में इन्हें द्रोह घरट्ट जिनालयके लिए प्रामादि दान दिये थे | यह उल्लेख नयकीति सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य नेमिचन्द्र पण्डितदेवको उसी जिनालयके लिए वर्ष 'प्रमादिन में दिये गये शासनमें हुआ है। ल. राईसने इस अभिलेखका समय ११३३ ई० अनुमानित किया है। अतः यह माघवचन्द्र ई. सन् १९००-१२२५ के लगभग होने चाहिए।
एक अन्य माधवचन्द्र शुभचन्द्र सिद्धान्तदेवके शिष्य थे। ई० सन् ११३५ के लगभग विष्णुवर्धनके प्रसिद्ध दण्डनायक गंगराजके पुत्र बोपदेव दण्डनायकने अपने पिताके बड़े भाई बम्मदेवके पुत्र तथा अनेक बसतियोंके निर्माता एच. राजकी मृत्युपर इनको निषद्या बनवाकर उन्हींके द्वारा निर्मापित बसतियोंके लिए स्वयं एच० राजको पत्नी और माताको प्रेरणापर इन माधवचन्द्रको धारापूर्वक दान दिया था 13
हमारे अभीष्ट माधवचन्द्र नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य माधवचन्द्र विद्य हैं, जिन्होंने अपने गुरुको सम्मतिसे कुछ गाथाएं यत्र-तत्र समाविष्ट की हैं । यथा१. रिष्टसमुच्चय, गोधा जैन ग्रन्थमाला, इन्दौर, वि०सं० २००५, पृ० १६८, पद्य२५४ । २. एपि. कर्णः ५, बल्लूर, १२४ । ३. जैनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या १४४ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : २८९