Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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द्वितीय परिच्छेद
परम्परापोषकाचार्य
प्रास्ताविक
आयार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्परासे वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं । जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त वाङमयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करनेके लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है ।
यह सत्य है कि वाङ्मय निर्माण की प्रतिभा किसी भी जाति या समाजकी समान नहीं रहती है। आरम्भमें जो प्रतिभाएँ अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
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