Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
बारहवीं सन्धिमें आया है कि सुदर्शन मुनिने चार घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। स्वर्गसे आकर इन्द्रने उनकी स्तुति की और कुवेरने समवसरणकी रचना की । केवलोके अतिशय तथा उनके उपदेशको सूनकर अभयारानीके जीव व्यन्तरीको भी वैराग्यभाव हो गया और उसने सम्यक्त्वभाव धारण किया ।
इस प्रकार इस महाकाव्य में आकर्षक कथावस्तु गम्फित है। कोमल पद, गम्भीर अर्थ और अलंकारोंकी अद्भुत छटा काव्यसौन्दर्यको वृद्धिगत करती है। सयलविहिविहाण
'सकलविधिविधा काय परियों का सहमा है, पर यह ग्रन्थ अपूर्ण ही उपलब्ध है । इसमें १६ सन्धियां नहीं हैं । प्रारम्भको दो तोन सन्धियोंमें ग्रन्थके अवतरण आदि पर प्रकाश डाला गया है । १२वीं से १५वीं सन्धि तक मिथ्यात्वके कालमिथ्यात्व और लोकमिथ्यात्व आदि अनेक मिथ्यावोंका स्वरूप बतलाते हुए क्रियावादी और अक्रियावादी आदि मेदोंका विवेचन किया है । १५वीं सन्धिसे ३१वी सन्धि तक १६ सन्धियों प्राप्त नहीं हैं। कविने इस ग्रंथमें बिलासिनी, भुजङ्गप्रिया, मजरी, चन्द्रलेखा, मौक्तिकमाला, पादाकुला, मदनलीला आदि विविध छन्दोंका प्रयोग किया है । अतएव छन्दशास्त्रकी दुष्टिसे भी यह ग्रंथ महनीय है। ३२वीं सन्धिमें मद्य, मांस, मधुके दोष, उदम्बरादि पंचफलोंके त्यागका विधान बताया है। ३३वीं सन्धिमें पञ्चअणुव्रतोंको विशेषताओंका वर्णन है और उनमें प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले व्यक्तियोंके आख्यान भी आये हैं। ५६वीं सन्धिके अन्तमें सल्लेखनाका उल्लेख है। इस ग्रन्थमें गृहस्थाचारका वर्णन विस्तारके साथ आया है।
इतिहासकी दृष्टिसे भी यह ग्रंथ कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसमें काञ्ची पुर, अम्बाइय और बल्लभराजका कथन आया है। इस ग्रंथकी रचनाको प्रेरणा मुनि हरिसिंहने को थो । प्रशस्तिमें वररुचि, वामन, कालिदास, कौतूहल, वाण, मयूर, जिनसेन, वादरायण,श्रीहर्ष, राजशेखर, जसचन्द्र, जयराम, जयदेव, पादलिप्त, धिंगल, वीरसेन, सिंहनन्दि, सिहभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, अकलंक, रुद्रगोविन्द, दण्डो, भामह, माघ, भरत, चउमुह, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, श्रीचन्द्र, प्रभाचन्द्र और श्रीकुमारका निर्देश आया है। ___इस ग्रंथको सामग्री अत्यन्त महत्वपूर्ण है । संसारको असारता और मनुष्यको उन्नति-अवनतिका इसमें हृदयग्ग्राही चित्रण आया है।
२९४ : तीर्थकर महाबोर और उनकी आचार्य-परम्परा