Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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होती है। यह चैतन्य शरीरात्मक है अथवा शरीरका ही गुण या कार्य है । इसके उत्तरमें कहा गया है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं, क्योंकि जीव चेतन, निरवयव, बाह्य इन्द्रियोंसे अग्राह्य और स्पर्शादिसे रहित है । इसके प्रतिकूल शरीर जड़, सावनयबाह्य इन्द्रियोंसे ग्राह्य एवं स्पर्शादि सहित है। चैतम्यकी उत्पत्ति चैतन्यसे ही सम्भव है, जड़से नहीं। शरीर जोवरहित अवस्थामें भी पाया जाता है तथा जीव भी अशरीरी अवस्थामें पाया जाता है। अतएव चेतन्यआत्माको सिद्धि प्रमाणसे होती है ।
आगमके उपदेशक सर्वज्ञका अस्तित्व चार्वाक और मीमांसक नहीं मानते। उनके आक्षेपोंका उत्तर देते हुए भावसेनने बताया है कि सर्वशका अस्तित्व बागम और अनुमानसे सिद्ध होता है । ज्ञानके समस्त आवरण नष्ट हो जानेपर स्वभावतः समस्त पदार्थोंका ज्ञान होता है। ज्ञान और वैरागका परम प्रकर्ष ही सर्वशत्व है। पुरुष होना अथवा वक्ता होना सर्वज्ञत्वमें बाधक नहीं है। सर्वज्ञका अस्तित्व अनुमान द्वारा सुनिश्चित है।
न्यायदर्शनमें सर्वज्ञका अस्तित्व स्वीकार किया गया है। किन्तु सर्वज्ञ जगत्कर्ता है, इसकी मीमांसा की गयी है। ईश्वर जगत्कर्ता है, यह कहनेका बाधार है, जगत्को कार्य सिद्ध करना । कार्य वह होता है, जो पहले विद्यमान न हो तथा बादमें उत्पन्न हो जाये। किन्तु जगत् अमुक समयमें विद्यमान नहीं था, यह कहनेका कोई साधन नहीं है । अतः जगत्को कार्य सिद्ध करना ही गलत है। इस प्रकार कार्यत्वहेतुका खण्डन कर जगत्कर्ताका खण्डन किया है।
मोमांसक सर्वशप्रणीत आगम तो नहीं मानते, किन्तु अनादि अपौरुषेय वेदको प्रमाणभूत आगम मानते हैं। इनका चार्वाकोंने खण्डन किया है। वेदको अपौरुषेय मानना भ्रान्त है, क्योंकि कार्य होनेसे वेदका भी कोई कर्ता होगा ! वेदको अध्ययनपरम्परा अनादि है, यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि काण्व, याज्ञवल्क आदि शाखाओंके नामोंसे उन परम्पराओंका प्रारम्भ उन ऋषियोंने किया था, यह स्पष्ट होता है। वेदककि सूचक वाक्य वैदिक ग्रन्योंमें ही उपलब्ध होते हैं। अतः वेदका प्रामाण्य अपौरुषेयताके कारण नहीं हो सकता है।
वेद स्वतः प्रमाण है, इस मीमांसक मतके सिलसिले में ज्ञान स्वतः प्रमाण होते हैं या परत: प्रमाण होते हैं, इसका विचार लेखकने किया है । ज्ञान यदि वस्तुतत्त्वके अनुसार है, तो वह प्रमाण होता है तथा वस्तुके स्वरूपके विरुद्ध है, तो अप्रमाण होता है । अतः मानका प्रामाभ्य वस्तुके स्वरूपपर आधारित २६२ : तीपंकर महावीर कौर उनको आचार्य-परम्पय