Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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इस ग्रन्थमें २२ निग्रहस्थान और वादके चार अंगों-१. सभापति, २. सभ्यजन, ३. प्रतिवादी और ४. बादीका सम्यक प्रतिपादन किया गया है। वादके १. तात्त्विकबाद, २. प्रातिभवाद, ३. नियतार्थवाद और ४. परार्थनवादका वर्णन आया है।
पत्रका लक्षण, पत्रके अंग एवं पत्रके विषयमें जय और पराजयकी व्यवस्था वणित है। कथाके वाद, वादवितण्डा, जल्प और जल्पवितण्डा ये भेद किये गये हैं तथा वाद और जल्पको अभिन्न माना गया है । लिखा है
"तस्मात् सम्यक्साधनदषणवत्त्वेन वादान्न भियते जल्पः । तद् वितण्डापि वादवितण्डातो न भिद्यते । ततो वादो जल्प इत्यनान्तरम्। तद्वितण्डेऽपि तथा । तत एव कथायां वीतरागविजिजीविषयविभागो नास्त्येव ।
-प्रमाप्रमेय १।१०८पृ० ६.७.९८ । आगम, आगमाभास, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणके प्रतिपादन प्रसंगमें मान, उन्मान, अवमान, प्रतिमान, तत्प्रतिमान एवं गणमानका स्वरूप भी प्रतिपादित है। उपमानप्रमाणके अन्तर्गत आगमिकपरम्पराके पल्य, रज्जु आदिको गणना भी बतलायी गयी है ।
२. कथा-विचार-इस ग्रन्थका केवल उल्लेख ही प्राप्त होता है। इसमें दार्शनिकवादोंसे सम्बद्ध वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान आदिका विस्तृत विचार किया गया होगा। यह ग्रन्थ अद्यावधि प्राप्त नहीं है।
३. शाक्टायनव्याकरण-टोका-मध्यप्रान्तीय हेस्तलिखित सूची में इस ग्रन्थका निर्देश आया है। इसी आधारपर जैन साहित्य और इतिहास में पंडित नाथूरामजी प्रेमीने और जिनरत्नकोष में श्री वेलणकरने इसका उल्लेख किया है, पर अभी तक इसकी कोई हस्तलिखित या मुद्रित प्रति प्राप्त नहीं है।
४. कातन्त्र रूपमाला-कातन्त्ररूपमाला व्याकरण के सूत्रोंके अनुसार शब्दरूपोंको सिद्धिका वर्णन आया है। ग्रन्थ दो भागोंमें विभक्त है। पूर्वाद्धं और उत्तरार्ध । पूर्वार्धमें २७४ सूत्रों द्वारा सन्धि, नाम, समास और तद्धितके रूपोंको सिद्धि की गयी है। उत्तरार्घमें ८०९ सूत्रों द्वारा तिङन्त कृदन्तके रूपोंका साघुत्व आया है । कातन्त्ररूपमाला यह नाम भावसेनका दिया हुआ है। यों इस ग्रन्थ१. मध्यप्रान्तीय हस्तलिखित ग्रन्थसूची, पु० २५ । २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १५५ । ३. जिनरत्नकोष, पृ० ३७७ । २६. : वीकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा