Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 292
________________ date is that he livedl souctimes between the end of the 9th and the end of the 13111 century AD." अप्पार्य नामक चिद्गानने मन् १३२० में अपना प्रतिष्ठापाठ लिखा है । उन्होंने इसकी आरम्भिक प्रशस्ति में पण्डित आशाधर और हस्तिमल्लके नामका उल्लेख किया है। उस प्रशस्तिमें यद्यगि आशाधरका उल्लेख पहले और हस्तिमल्लका उल्लेख आशाधरके पश्चात् आया है, इससे इन दोनोंका समकालीन होना सिद्ध होता है । अतएव हमारी नम्र सम्मतिके अनुसार हस्तिमल्लका समय वि० संवत् १२१७-१२३७ (ई. सन ११६१-१९८१) तक माना जाना चाहिये । रचना उभयभाषाकविचमा माघार्य ही मह निकालिखित चा नाटक और एक पुराण ग्रन्थ प्राप्त है। इनके द्वारा विरचित एक प्रतिष्ठापाठ भी बताया जाता है। विक्रान्तकौरव-इस नाटकमें छह अङ्ग हैं। महाराज सोमप्रभके पूत्र कौरवेश्वरका काशीनरेश अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाके साथ स्वयम्बरविषिसे विवाह सम्पन्न होनेकी कथावस्तु वर्णित है । कविने सुलोचना और कौरवेश्वरके प्रेमाकर्षणका सुन्दर चित्रण किया है। जब स्वयंवरमें सुलोचना कौरवश्वरका वरण कर लेती है, तो चक्रवर्ती भरतका पुत्र अर्ककीति काशीनरेशसे रुष्ट हो जाता है। राजा अकम्पन अपनी छोटी पुत्री रत्नमालाके साथ विवाह कर देना चाहता है, पर अकीर्ति सहमत नहीं होता। फलतः कोरवेश्वरका अर्ककोतिके साथ युद्ध होता है, जिसमें अर्ककीर्ति परास्त हो जाता है। महाराज अकम्पन इस युद्धसे बहुत ही चिन्तित हैं। इसी बीच चक्रवर्तीका सन्देश प्राप्त होता है, जिसमें वे अर्ककोतिके अनुचित व्यवहारकी भर्त्सना करते हैं। फलतः अर्ककीर्ति अकम्पनके प्रस्तावको स्वीकार कर लेता है और रत्नमालाके साथ उसका विवाह सम्पन्न हो जाता है । अनन्तर अकम्पन कौरदेश्वरके साथ सुलोचनाका विवाह भी सम्पन्न कर देता है।। नाटककारने कथावस्तुका संघटन नाटकीय सिद्धान्तोंके आधारपर किया है। इसमें प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम नामक पाँचों अवस्थाएं घटित हुई हैं। कथावस्तुका क्रमनियोजन सरलरेखाके रूप में सम्पन्न नहीं हुआ है । कथाका क्रम वक्ररेखाके रूपमें गतिशील होकर उद्देश्यको प्राप्त १. 'अन्जनापवर्नजयं नाटक सुभद्रा नाटिका च'का Introduction, Fage 14, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई १९५० । २८० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा

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