Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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है-परतः निश्चित होता है, स्वतः नहीं । इसी सन्दर्भ में ज्ञानके स्वसंवैध और अस्वसंवेद्यकी भी चर्चा की गयी है।
प्रामाध्यके सम्बन्धमें अप्रमाण जानका--भ्रान्तिका स्वरूप क्या है, यह विस्तारसे बतलाया गया है। माध्यमिक बौद्ध सभी प्रकारके पदार्थ के ज्ञानको भ्रम कहते हैं। 'संसारमें कोई पदार्थ नहीं है, सब शून्य है। यह उनका अभिमत है, पर सर्वजनप्रसिद्ध प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि प्रमाणोंका इस प्रकार अभाव बतलाना युक्त नहीं ; राधि प्रमाण जामः' है. जर प्रमेय - बाह्य पदार्थों का भी अस्तित्व अवश्य मानना होगा। इसी प्रकार योगाचार बौद्धोंके विज्ञानवादको भी समीक्षा की गयी है।
जगत्के स्वरूपको भ्रमअन्य माननेवाले वेदान्तदर्शनकी समीक्षा विस्तारसे की है। वेदान्तियोंका कथन है कि प्रपञ्च-संसारकी उत्पत्ति अज्ञानसे होती है, तथा ज्ञानसे उसको निवृत्ति होती है । पर अज्ञान जैसे निषेधात्मक अभावरूप तत्त्वसे जगत् जेमा भावरूप तस्व उत्पन्न नहीं हो सकता है । इसी प्रकार ज्ञान वस्तुको जान सकता है, उसका नाश नहीं कर सकता। वैदिक वाक्योंमें अनेक स्थानोपर प्रपञ्चको ब्रह्मस्वरूप कहा है। अत: ब्रह्म यदि सत्य हो, तो प्रपंच भी सत्य होगा। प्रपंचको गत्यतामें बाधक कोई प्रमाण नहीं है। ब्रह्मसाक्षात्कारसे प्रपंच बाधित नहीं होता। इस प्रकार मायावादकी समीक्षा भी विस्तारसे की गयी है।
पूर्वोक्त दार्शनिक मान्यताओंके अतिरिक्त वेशेषिक और नैयायिक द्वारा अभिमत आत्मसवंगतवादका निरसन किया गया है। वैशेषिक मतमें इन्द्रियोंको पथ्वी आदि भूतोंसे उत्पन्न माना है तथा इन्द्रियों और पदार्थों के सन्निकर्षके बिना प्रत्यक्षज्ञान सम्भव नहीं होता। अन्त में प्रत्येक कर्मके भोगे बिना मुक्ति नहीं मिलती, इस मतका निराकरण किया है, तथा ध्यानबलसे कर्मक्षयका समर्थन किया है।
न्यायदर्शनकी तत्वव्यवस्थामें प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों की गणना की गयो है। इन १६ पदार्थों की समीक्षाके अनन्तर ज्ञानयोग, भक्तियोग और क्रियायोगपर विचार किया है।
भाट्ट मीमांसक अन्धकारको द्रव्य मानते है। नैयायिकादि उसे प्रकाशका अभावमात्र कहते हैं । यहाँ इन सभी मतोंको विस्तृत समीक्षा की गयी है ।
सांख्योंके मतसे जगत्का मूल कारण प्रकृतिनामक जड़तत्व है तथा यह सत्व, रजस् आर तमस् इन तीन गुणोंसे बना है । बुद्धि, अहंकार, इन्द्रिय तथा
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्पयपोषकाचार्य : २६३
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