Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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छठी कथा उपगूहन अङ्गको विशेषता प्रकट करनेवाली है । इस अङ्गका पालन जिनेन्द्रदत्त सेटने किया था । प्रायः प्रत्येक व्यक्ति अपनी गलतियों और त्रुटियोंको न देखकर दूसरोंकी गलतियों और त्रुटियों को देखता है। परिणाम यह निकलता है कि हम दूसरोंकी गलतियाँ ही देखते रह जाते हैं, अपना सुधार नहीं कर पाते । उपगूह्न अंगको कथा बतलाती है कि दूसरोंके दोषोंका आच्छादन कर उन्हें मागंपर लाया जाये । घृणा हमें पापसे करना चाहिये, पापीसे नहीं ।
सातवीं कथा स्थितिकरण अंगके पालन करनेवाले वारिषेणकुमारकी है । इस कथासे स्पष्ट है कि सच्चा मित्र किस प्रकार अपने मित्रका कल्याण कर सकता है । मित्रका कार्य केवल मनोरंजन करना ही नहीं, प्रत्युत मित्रका सुधार करना है । वारिषेणकुमारने अपने मित्र पुष्पडालका कितना उपकार किया। दीक्षासे विचलित होते हुए मित्रको आत्मकल्याण में स्थिर किया । पुष्पडाल १२ वर्षो तक मुनि बने रहने पर भी अपनी भार्याके मोह में आसक्त रहा । आत्मध्यान के स्थानपर उसके रूपलावण्यका हो चिन्तन करता रहता था । कथा बड़ी ही रोचक है, बीच-बीच में दिया गया धर्मोपदेश जन्म- जरारूपी मलेरियाको दूर करनेके लिए चीनी लपेटी कुनेनकी गोली है ।
आठवीं कथा वात्सल्य अंगके धारी विष्णुकुमारको है। इस कथामे बताया गया है कि साधर्मी माईसे वात्सल्यभाव रखना, संकटमें सहायता पहुँचाना और उसके साथ हर तरहका सहयोग रखना प्रत्येक व्यक्तिके लिए आवश्यक है । जो स्वार्थवश अपना ही लाभ सोचते हैं, अन्य व्यक्तियोंके लाभालाभका विचार नहीं करते, वे मानव नहीं दानव है । मानवशब्द ही इस बातका द्योतक है कि विवेकशील बनकर प्रेमभावसे रहना तथा परोपकार में सदा प्रवृत्ति करना | धर्मद्वेष व्यक्तिको कितना नीचा गिरा देता है, यह राजा बलिके आचरण से स्पष्ट है । सहनशीलता जीवनके विकासके लिए एक आवश्यक और उपयोगी गुण है । जो व्यक्ति छोटी-सी बातको लेकर रुष्ट हो जाता है और बदला लेनेको भावनाको मनमें बैठा लेता है, वह व्यक्ति नीच प्रकृतिका है । विष्णुकुमारमुनिने वात्सल्यसे प्रेरित होकर मुनिसंघकी रक्षा की ।
नवीं कथामें प्रभावना अंगकी महत्ता बतलायी गयी है । इस अंगका पालन वज्रकुमारमुनिने किया है । प्रचलित कथाको अपेक्षा इसमें अनेक अवान्तर कथाएँ आयोजित की गयी हैं । अवान्तर कथाओंके रहनेसे कथा रोचक बन गयी है । धर्ममार्गका उद्योतन करनेके लिए प्रत्येक व्यक्तिको सदा तैयार रहना चाहिये । धर्मं वह रसायन है, जिसका सेवन कर कोई भी व्यक्ति संसार
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २६७