Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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केशव मिश्र से किंचित् पूर्व अथवा समकालीन होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि भावसेनके समापिलेखकी लिगि १३ वीं शताब्दी के अनुकूल है । इससे भी इनका समय ई० सन्की १३ वीं शताब्दीका मध्यभाग होना संभव है । रचनाएं
मावसेन प्रतिभाशाली विभिन्नविषयोंके ज्ञाता आचार्य हैं। इनकी निम्नलिखित रचनाएँ प्राप्त है-
१. प्रमाप्रमेय-ग्रन्थ के प्रारम्भमें मङ्गलाचरण करते हुए लिखा हैश्री वर्धमानं सुरराज्य पूज्यं साक्षात्कृताशेषपदार्थं तत्वम् । सीख्याकरं मुक्तिपति प्रणम्य प्रमाप्रमेयं प्रकटं प्रवक्ष्ये ॥ ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्ति में भावसेन त्रैविद्यके विशेषणों का प्रयोग आया है । इसमें केवल एक ही परिच्छेद प्राप्त है और यह मोक्षशास्त्रका पहला प्रकरण है तथा प्रमेयकी ही चर्चा की गयी है । ग्रन्थका उत्तरार्ध भाग अप्राप्य है, जिसमें प्रमाचर्चा भी सम्मिल्लित रही होगी । अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है
'इति परवादिगिरिसुरेश्वरश्रीमद्भावसेन त्रैविद्यदेवविरचिते सिद्धान्तसारे मोक्षशास्त्रे प्रमाणनिरूपणः प्रथमः परिच्छेदः ।'
इस ग्रन्थ में प्रत्यक्ष इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, योगिप्रत्यक्ष और स्वयंवेदनप्रत्यक्ष ये चार भेद किये हैं । परोक्षके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, कहापोह, अनुमान और आगम ये छः भेद माने हैं।
अनुमानके पक्ष, साध्य, हेतु दृष्टान्त, उपनय और निगमन ये छः अवयव तथा हेतुका लक्षण अन्यथानुपपत्तिको न मानकर व्याप्तिमान पक्षधर्मको बताया है। अनुमानके भेदोंका निरूपण दो रूपों में किया है-
१. केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी । २. दृष्ट, सामन्यतोदृष्ट और अदृष्ट ।
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हेत्वाभासके सात भेद बतलाये गये हैं-असिद्ध विरूद्ध अनेकान्तिक, अकिञ्चित्कर, अनध्यवसित्, कालात्ययापदिष्ट तथा प्रकरणसम ।
विपक्ष से समानता बतलाने वाले वाक्यसे दिया हुआ उत्तर जाति कहलाता है । जतियोंकी संख्या बीस है, यतः वर्ण्यसमा जातिमें साध्यसमा जातिका अन्तर्भाव होता है, अतः उसका पृथक् वर्णन नहीं किया है। प्रत्युदाहरण जातिका समावेश साधम्र्म्यसमा जातिमें होता है। अर्थापत्तिसमा तथा उपपत्तिसमा जातियाँ प्रकरणसमा जातिसे भिन्न नहीं है तथा अनित्यसमाजाति अविशेषसमा जाति से अभिन्न है । अतः पुनरुक जातियोंको छोड़ देनेपर जातियाँ बीस होती हैं ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २५९