Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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परमशब्दब्रह्मस्वरूपत्रिविद्याधिपारवादिपर्वतवज्रदंडश्रीभावसेनभट्टारकारणाम् ॥
पट्टालिमें आये हुए वादि, पर्वत, बज्र और शब्दब्रह्मस्वरूप इन विशेषणोंसे स्पष्ट है कि प्रस्तुत उल्लेख भावसेन विद्यका ही है। पट्टावलि १७वीं शतीकी है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि भावसेन विद्य अत्यन्त प्राचीन हैं। इतना तो स्पष्ट है कि सेनगणके पुरातन आचार्यों में इनकी गणना की गयी है।
प्रकट है कि इन्हें 'बादिगिरिवजदण्ड' और 'वादिपर्वतवज्र' ये विशेषण वादीरूपी. पर्वतोंके लिये वज्रके समान सिद्ध करते हैं। कातन्त्ररूपमालावृत्तिमें 'परवादिगिरिसुरेश्वर' विशेषण भी आया है, जिससे इनका शास्त्रार्थी विद्वान होना सिद्ध होता है । ग्रन्थपूष्पिकाओंमें इन्हें विद्य, विद्यदेव और विद्यचक्रवर्ती विशेषण दिये गये हैं | जैन आचार्यों में शब्दागम (व्याकरण), तांगम (दर्शन) तथा परमागम (सिद्धान्त) इन तीन विद्याओंमें निपुण व्यक्तिको
विद्य' उपाधि दी जाती थी। इससे स्पष्ट है कि भावसेन तर्क, व्याकरण और सिद्धान्त इन विषयोंके मर्मज्ञ विद्वान थे। विश्वतत्त्वप्रकाशके अन्तमें उनकी शिष्य द्वारा जो प्रशस्ति दी गयी है, उसमें षट्तर्क, शब्दशास्त्र, स्वमत-परमत आगम, वैद्यक, संगीत, काव्य, नाटक आदि विषयोंके ज्ञाता भी इन्हें बताया है । इसमें सन्देह नहीं कि भावसेन चार्वाक, वेदान्ती, योग, भाट्ट, प्राभाकर, सांख्य और बौद्ध दर्शनोंके जाता थे | प्रशस्ति में आया हुआ पद्य निम्न प्रकार है
षटतर्क शब्दशास्त्र स्वपरमतगताशेषराद्धान्तपक्षं वैद्य वाक्यं विलेख्यं विषमसमविभेदप्रयुक्त कवित्वम् । संगीतं सर्वकाव्यं सरसकविकृतं नाटकं वेत्सि सम्यम्
विद्यत्वे प्रवृत्तिस्तव कथमवनौ भावसेननतीन्द्र || यह प्रशस्ति १० पद्योंकी है। अन्य पद्योंमें अभिनवविधि, सीन्द्र, मनिप, वादोभकेशरी इत्यादि विशेषणों द्वारा प्रशंसा की गयी है । इस प्रशस्तिके तीन पद्य कन्नड़ भाषाके हैं और पूर्वोक्त समाधिलेख भी कन्नड़ भाषामें ही है। अस. भावसेनका निवासस्थान कर्नाटक प्रदेश था, यह स्पष्ट है।
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष १, पृ० ३८१ २. सिद्धान्त जिनधीरसेनसदृशः शास्याबभाभास्करः, पट्तवकलंकदेवविधः साक्षा
दयं भूतले । सर्वव्याकरणे विपश्चिवधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं वैवियोसममेषचन्द्र ___ मुनिपो वादीमपंचाननः ।।-नशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, पृ. ६२ । ३. विश्वतत्त्वप्रकाश, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य ५ ।
प्रजाचार्य एवं परम्परापोषकापार्य : २५७