Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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धमनी, मांसरज्जु, मर्मस्थान, दन्त, वात, मूत्र, मल, औषध, स्थूल शरीर, क्षीण-शरीर, मध्यम शरीर, वात-पित्त-कफ आदिका वर्णन आया है ।
(४) धान्यादि-गुणाधिकार--इस परिच्छेद में ४८ पद्यों द्वारा समय वर्णन के पश्चात् विशेष विशेष पालुओं से होने के होनेवाले विशेष धान्योंका गुण वर्णन किया गया है।
प्रयुक्त
(५) अन्नपानविधि-वर्णनाधिकार — इस अधिकारमें ४५ पद्य हैं। जल, यवागू, मण्ड, मुद्गयूष, दुग्ध, दधि, तक्र, नवनीत, घृत, तेल आदिके गुणधर्मोक वर्णनके पश्चात् विभिन्न पशुओंके सूत्रोंका गुणधर्म बताया गया है ।
(६) रसायन विधि - इस परिच्छेद में ४५ पद्य हैं । उद्वर्तन, स्नान, ताम्बूलभक्षण, पादाभ्यंग, ब्रह्मचयं, निद्रा, गोधूमचूर्ण, त्रिफला, यष्टिचूर्ण, विडंग-सार, नागबल, बाकुचीरसायन, वज्रादिरसायन, चन्द्रामृतरसायन आदिका निरूपण किया है ।
(७) व्याधिसमुद्देश -- इस परिच्छेद में ६३ पद्म है । रोगोंकी उत्पत्तिके हेतुका वर्णन करने के अनन्तर रोगोको शय्या, शयन-विधि, दिनचर्या, चिकित्सा, औषधके गुण आदिका कथन आया है ।
(८) वातरोगाधिकार - इस परिच्छेद में ७३ पद्य है और विविध प्रकारके वात रोगों का वर्णन किया गया है ।
(९) पित्तरोगाधिकार - १०३ पद्योंमें विभिन्न प्रकारको पित्तव्याधियों और उनके शमनके उपाय बतलाये गये हैं ।
(१०) कफरोगाधिकार - इस परिच्छेदमें २८ पद्य है। इसमें विविध प्रकारके कफरोगों और उनकी चिकित्साका वर्णन आया है ।
(११) महामायाधिकार - इस परिच्छेद में १८० प हैं और विभिन्न प्रकारकी कुष्ठादि महाव्याधियोंका कथन आया है ।
(१२) द्वादशम परिच्छेदमें १३६ पद्य हैं और इसमें भी वात-पित्त जन्य महाव्यावियोंका स्वरूप और उनकी चिकित्सा बतलायी गयी है ।
(१३-१४-१५-१६-१७) -- इन पाँच परिच्छेदोंमें क्षुद्र रोगोंका वर्णन आया है। त्रयोदशम परिच्छेद में ९१ पद्य हैं और इसमें भगन्दर और उपदंश जैसो व्याधियों की चिकित्सा वर्णित है । चतुर्दश परिच्छेदके ९१ पद्योंमें शोथ, श्लीपद aeमीक-पाद, गलगण्ड, नाड़ी-व्रण, प्रभृति रोगोंकी चिकित्सा बतलायी गयी है । पञ्चदश परिच्छेद में २९२ पद्य हैं। इनमें तालुरोग, जिह्वारोग, दन्तरोग, नेत्ररोग, शिरोरोग आदिको चिकित्सा बतलायी गयी है । षोडश अधिकारमें १०१ पश्च है । इनमें स्वाँस, महास्वांस; तृष्णारोग, छदि रोग, मूत्रावरोध आदि प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: २५५