Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
न्तसारको प्रारम्भिक गाथाएँ गोम्मटसार जीवकाण्डसे पूर्णतया प्रभावित हैं। जीवकाण्डमें सिद्धगतिका वर्णन करते हए बताया है कि सिद्धजीवोंकी सिद्धगति केवलज्ञान क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, अनाहार और उपयोगकी अक्रम प्रवृत्ति होती हैं।
सिद्धपरमेष्ठी-१४ गुणस्थान, १४ जीव-समास, ४ जीव संज्ञा, ६ पर्याप्ति, १० प्राण-इनसे रहित होते हैं तथा इनके सिद्धगति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और अनाहारको छोड़कर शेष नव मार्गणा नहीं पायी जाती। ये सिद्ध सदा शुद्ध ही रहते हैं, क्योंकि मुक्ति प्राप्तिके बाद पुनः कर्मका बन्ध नहीं होता । यथा
सिद्धाण सिद्धगई केबलणाणं च दसणं खइयं । सम्मत्तमणाहारं उवजोगाणक्कमपउत्ती ।। गुणजीवठाणरहिया सण्णापज्जत्तिपाणपरिहोणा। सेसणवमागणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ॥
जीवगुणठाणसण्णापज्जतीपाणमग्गणणचूर्ण । सिद्धतसारमिणमो भणामि सिद्धे णमंसित्ता ॥ जिला सिमा सण म पलं खइयं ।
सम्मत्तमणाहारे सेसा संसारिए जीवे ॥ इन गाथाओंकी तुलनासे स्पष्ट है कि आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके पश्चात् हो सिद्धान्तसारके रचयिता जिनचन्द्र हुए होंगे । आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई० सन् की दशम शताब्दी है। सिद्धान्तसारपर प्रभाचन्द्रने विक्रमको १३ वीं शताब्दीमें कन्नड़ टीका लिखी है । अतएव जिनचन्द्रका समय नेमिचन्द्र और प्रभाचन्द्रके मध्यमें होना चाहिए । अर्थात् ई० सन् की ११ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध या १२ वीं शताब्दीका पूर्वार्थ निश्चित है। रचना-परिचय
जिनचन्द्रका सिद्धान्तसार प्राकृतभाषामें निबद्ध उपलब्ध है। इस ग्रन्थपर ज्ञानभूषणका संस्कृतभाष्य भी है। इसका प्रकाशन माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे सिद्धान्तसारादिसंग्रहके रूपमें हो चुका है। इसमें ७९ गाथाएं हैं। आचार्यने १४ मार्गणाओंमें जीवसमासों, गुणस्थानों, योगों और उपयोगोंका वर्णन किया है। १४ जीवसमासोंमें योगों और उपयोगोंका एवं १४ गुणस्थानोंमें योगों
१. गोम्मटसार जीवकाण्ड, रायचन्द जैनशास्त्रमाला, पद्य-७३०-३१, पृ. २७२ । २. सिसान्तसाराविसंग्रह, माणिकपन्द्र प्रस्थमाला, पद्य १.२, पृ० १-२ ।
१८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा