Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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इन चारोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। ध्येयके दूसरे चार प्रकार - नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे बतलाये गये हैं । आत्मज्ञानी इन चारोंको अथवा इन चारोंमेंसे किसी एकको अपनी इच्छानुसार ध्यानका विषय बना सकता है । वाच्यके वाचकको नाम, प्रतिमाको स्थापना, गुणपर्यायचानुको द्रव्य और गुण तथा पर्याय दोनोंको भावध्येय बतलाया है । यहाँ ध्यान करने के लिए कई मन्त्रोंका भी कथन आया है । स्थापनाध्येय, द्रव्यध्येय और भावध्येयका निरूपण भी विस्तारपूर्वक किया गया है। द्रव्यके जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये मूल छन् भेद बतलाये है। इस ग्रन्थ में जीव के स्थानपर पुरुष शब्दका प्रयोग आया है ।
भावध्येयका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि जिस समय ध्याता ध्यानके बलसे शरीरको शून्य बनाकर ध्येयस्वरूपमें आविष्ट हो जानेसे अपनेको तत्सदृश बना लेता है उस समय उस प्रकारकी ध्यानसंवित्तिसे भेदविकल्पको नष्ट करता हुआ वही परमात्मा गरुड़ अथवा कामदेव हो जाता है । व्येय मोर ध्याता दोनों का जो यह एकीकरण है, उसीको समरसोभाव कहते हैं । जो ध्याता बाह्य पदार्थों में समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैषम्य, प्रशम और शान्त जैसे शब्दोंके द्वारा अपने माध्यस्थ्यभावको वृद्धिगत करता है, वह भी वास्तविक ध्येयको प्राप्त कर लेता है |
व्यवहारध्यान परावलम्बनरून है। इसमें
दादि पंचपरमेष्ठियोंके स्वरूपका ध्यान किये जानेका कथन आया है । स्वावलम्बी ध्यान इच्छुक 'स्व' और 'पर' को यथावस्थित रूपमें जानकर तथा श्रद्धानकर 'पर'को निरर्थक समझते हुए त्याग करता है और 'स्व' के जानने-देखने में प्रवृत होता है, वह संस्कारित आत्मामें तल्लीनताको प्राप्त होता है । श्रीतो भावनाका वर्णन श्लोक १४७ - १५२ तक किया गया है। इसमें 'स्व' और 'पर'को भित्र प्रतीति का कथन आया है
अन्यच्छरीरमन्योऽहं चिदहं तदचेतनम् | अनेकमेतदेकोऽहं क्षयोदमहमक्षयः ।।
अचेतनं भवेन्नाऽहं नाऽहमप्यस्म्यचेत्तनम् । ज्ञानात्माऽहं न मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित्' |
अर्थात् - शरीर अन्य है, में अन्य हूँ, क्योंकि में चेतन हूँ, शरीर अचेतन है, यह शरीर अनेकरूप है, में एकरूप हूँ, यह क्षयी - नाशवान् है, में अक्षय अविनाशी हूँ ।
१. तत्त्वानुशासन पद्य १४९-१५० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २४९