Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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जैनेन्द्र वैद्यने विजय प्राप्त की। अमोघवर्ष प्रथमको नृपतुंग, वल्लभ और महाराजाधिराज उपाधियाँ प्राप्त थीं । इतिहासकारोंके मतसे अमोघवर्षके राज्यारोहणका समय शक संवत् ७३६ (वि. सं०८११) है। गुणभद्रसूरिकृत उत्तरपुराणसे भी ज्ञात होता है कि अमोधवर्ष प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेनका शिष्य था।
यस्य प्रांशनखाशुजालांवसरद्धारान्तराविर्भवत् पादाम्भोजरजःपिशङ्गमुकुटप्रत्यग्ररत्लद्युतिः। संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलं
स श्रीमान्जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलम् ।।' श्रीजिनसेनस्वामीफे देदोप्यमान नखोंके किरणसमूह धाराके समान फैलते थे और उसके बीच उनके चरण, कमलके समान जान पड़ते थे। उनके चरण. कमलोंकी रजसे जब राजा अमोघवर्षके मुकुटमें लगे हुए नवोन रत्नोंकी कान्ति पीली पड़ जाती थी तब वह अपने आपको ऐसा स्मरण करता था कि मैं आज अत्यन्त पवित्र हुआ हूँ। स्पष्ट है कि अमोघवर्षका समय जिनसेनका कार्यकाल हैं। प्रो० सालेतोरने लिखा है
"The next prominent Rastrakuta ruler who extended his patronage to Jainism was Amoghavarsa I, Nripatunga, Atishayadhawala (A. D. 815-877). From Gunabhadra's Uttarpurana (A. D. 898), we know that king Amoghavarsa I, was the disciple of Jinasena, the author of the Sankrit work Adipurana (A, D, 783) Thc Jaina leaning of king Amoghavarsa is turther corroborated by Mahabiracharya, the author of the Jain Mathmatical work Ganitasara sangraha, who relates that, that nonarch was a follower of the Syadwad Doctrine."
इस उद्धरणसे भी सष्ट है कि अमोघवर्ष भगवत् जिनसेनाचार्यके शिष्य थे। अमोघवर्ष स्यावादमतका अनुयायी था-इस बातका समर्थन गणितसारसंग्रहके कर्ती महावीरचार्यके कथनसे भी होता है। इसी अमोघवर्ष के शासनकालमें सिद्धान्तग्रन्यकी जयधवलाटोका वि० सं० ८९४ में समाप्त हुई।
जिनसेनने अपने पार्वाभ्युदयमें भी अमोघवर्षको परमेश्वरको उपाधिसे
१. उत्तरपुराण, प्रशस्ति श्लोक ९ । २. Mediaeval Jainism, Page 38 ।
२५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा