Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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कलां दद्ध्याच्छाब्दी विरचदिदं शास्त्रमनुज;
स्फुरद्वयश्रीमुभगमधुना बोसरिसुधीः ॥ संक्षेपमें यह कहा जा सकता है कि वोसरिके पिताका नाम दुर्लमराज, दादाका नाम नारायण और बड़े भाईका नाम कोक था। यह प्राध्य-उदोश्य ब्राह्मण थे। जैनगुरुओंके प्रभावसे ये जैन धर्म में दीक्षित हुए । दिगम्बराचार्य दामनन्दि इनके गुरु थे। ये मन्त्री, मन्त्रवादी, सुधी और रागविमुख-विरक्त दिगम्बराचार्य थे। ___ श्री जुगलकिशोरजी मुख्तारने बताया है कि दामनन्दिके शिष्य भट्टवोसरि वही हैं, जिनका श्रवणबेलगोलके अभिलेख ५. में उल्लेख है। इन्होंने महावादी विष्णुभट्टको पराजित किया था । ये दामनन्दि-अभिलेखानुसार प्रभाचन्द्राचार्यके सघर्मा थे, जिनके चरण धाराधिपति भोजराज के द्वारा पूजित थे और जिन्हें महाप्रभावक उन गोपनन्दि आचार्यका सधर्मा लिखा है, जिन्होंने कुवादि दैत्य धूर्जटोको बादमें पराजित किया था। __ श्री मुख्तार साहबका अनुमान है कि जंटी और महादेव दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। आश्चर्य नहीं कि जिन महादेवका उक्त प्रशस्तिपद्यमें उल्लेख है, वे ये ही धGटी हों और इनकी तथा विष्णुभट्टकी घोर पराजयको देखकर हो भट्टवोसरि जैनधर्ममें दीक्षित हुए हों और इसीसे उन्होंने महादेवसे प्राप्त ज्ञानको 'प्रमित-विषय' विशेषण दिया हो और दामनन्दिसे प्राप्त ज्ञानको 'अमनाक्' विशेषणसे विभूषित किया हो।
इस प्रकार प्रभाचन्द्रका सघर्मा होनेसे भद्र वोसरिका समय भी भोजराजके समकालीन माना जा सकता है । दामनन्दि तो भोजराजके समकालीन हैं हो, अतः उनके शिष्यका समय भी ई. सन्की ११वीं शताब्दीका उत्तरार्ध होना चाहिए। ग्रन्यके अन्तरंग परीक्षणसे भी यही सिद्ध होता है। आयज्ञानका प्रचार १३ वीं शती तक हो प्राप्त होता है। इसके पश्चात् प्रश्नशास्त्रमें आय वाली कल्पना लुप्तप्राय दिखलाई पड़ती है । ग्रह-योग प्रकरणमें जिन योगोंकी चर्चा की गयी है उन योगोंकी स्थिति दशम शताब्दीके उत्तरार्ध या ग्यारहवीं शताब्दीके पूर्वार्षकी है। भाषाशैली और विषय इन दोनों ही दृष्टियोंसे आयभानसिलक ११ वीं शताब्दी के बादकी रचना प्रतीत नहीं होती। रखमपरिचय ____ इस ग्रन्थमें कुल ४१५ गाथाएं और २५ प्रकरण हैं । प्रश्नशास्त्रको दृष्टिसे १. आयज्ञा०, २५वे प्रकरणका अन्तिम पद्य । २. पुरातन जैनवाक्य सूची, वीर सेवा मन्दिर संस्करण, सन् १९५०, पृ० १०३।
प्रवृद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २४५