Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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हैं। इन्द्रियविषयोंके सुखको ग्राह्य मानना सर्गया अनुचित है। मास्मिक और इन्द्रिय सुखकी तुलना करते हुए लिखा है
यदत्र चक्रिणां सौख्यं यच्च स्वर्गे दिवौकसाम् । कलयापि न तत्तुल्यं सुखस्य परमात्मनाम् ।।
–तत्वानुशासन २४६ इस प्रकार इस ग्रन्थमें विस्तारपूर्वक ध्यानका वर्णन आया है।
आचार्य गणधरकीर्ति आचार्य गणधरकीत्ति अध्यात्मविषयके विद्वान हैं। ये दर्शन व्याकरण और साहित्यके पारंगत विद्वान थे । गद्य और पद्य लिखनेकी क्षमता इनमें विद्यमान थी। अध्यात्मतरंगिणीके टीकाकारके रूपमें मणधरकोतिको ख्याति है। ये गुजगत प्रदेशकं निवासी थे । इन्होन अपना यह टाका सोमदेव नामके किसी व्यक्तिके अनुरोत्रसे रची है | गणधरकोतिने अध्यात्मतरंगिणो-टीकाको प्रशस्तिमें अपनी गुरुपरम्परा निबद्ध को है। साथ ही गुजरातकी प्रशंसा भी की है
स्फूर्जद्बोधगणेभवधत्तिपति चयम: संयमी, जजे जन्मवतो सुपोतममलं यो जन्मयादो विभोः । जन्यो यो विजयो मनोजनपतेजिष्णोर्जगज्जन्मिनाम,
श्रीमत्सागरनंदिनामविदितः सिद्धान्तवाविधुः ॥ स्थाद्वादसात्मकतपोवनिताललामो भव्यातिसस्यपरिवर्द्धननीरदामः । कामोरुभूरुविकर्तनसंकुठारस्तस्माद्विलोभहननोऽजनि स्वर्णनन्दो ।
तस्माद् गौतममार्गगो गुणगणे गम्यो गुणियामणीगीतार्थो गुरुसंगनागगरुहो गोर्वाणगीर्गोचरः । गुसिग्रामसमग्रतापरिगत: प्रोग्रग्रहोद्गारको, ग्रन्थग्रंथिविभेदको गुरुगमः श्रीपद्मनन्दी मुनिः ।। आचार्योचित्तचातुरोचयचितश्चारित्रचञ्चुः शुचिश्चावसिंचयचित्रचित्ररचनासंचेतनेनोच्चकैः । चित्तानन्दचमत्कृतिप्रविचरन्प्रांचत्प्रचेतोमतां,
प्रभूच्चारुविचारणेकनिपुणः श्रीपुष्पदन्तस्ततः ॥ समभवदिह चातश्चन्द्रवत्कायकान्तिस्तदनुविहितबोधो भव्यसत्केरवाणास् । मुनिकुवलययचन्द्रः कौशिकानन्दकारी, निहिततिमिरराशिश्चारुचारित्ररोचिः।। १. अध्यात्मतरंगिणी टोका, अन्तिम प्रशस्ति, पञ्च ८-१२ ।
प्रसाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २४३