Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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तत्वानुशासनमिदं जगतो हिताय
श्रीरामसेन-विदुषा व्यरचि स्फुटार्थम् ॥ अर्थात् वीरचन्द्र, शुभदेव, महेन्द्रधि और विजय विचागुरु हराया - मुर्ति एवं उच्चकोटिके चरित्र पारी कीर्तिमान नागसेन दीक्षागुरु हैं। प्रबद्धबद्धि रामसेन विद्वान्ने गुरुओंके उपदेशको प्राप्तकर इस सिद्धि-सूख-सम्पत्तिके उपायभूत तत्त्वानुशासनशास्त्रको जगत्-हितके लिए रचना की है। यह स्पष्ट अर्थसे युक्त है।
यहाँ यह विचारणीय है कि रामसेनाचार्यने जिस गुरुपरम्पराका उल्लेख किया है उसका समर्थन दूसरे प्रमाणोंसे कहाँ तक होता है। यशस्तिलकचम्पूकी रचना सोमदेवसूरिने शक संवत् ८८१ (वि० सं० १०१६)में की है। स नन्थके आठवें आश्वासके अन्तर्गत 'ध्यान-विधि' नामका एक कल्प आया है। इस कल्पका तत्त्वानुशासन पर कुछ भी प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। सोमदेवने नीतिवाक्यामतकी प्रशस्तिमें जिम महेन्द्रदेव भट्टारकका अपनेको अनुज लिखा है और उन्हें 'वादीन्द्रकालानल' बताया है वे उन महेन्द्रदेवसे भिन्न नहीं हैं, जिनका रामसेनने अपने शास्त्रमुरुओंके रूपमें उल्लेख किया है। अत: आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तारके इस अनुमानकी पुष्टि होती है कि रामसेनके शास्त्रगुरु नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें उल्लिखित महेन्द्रदेव भट्टारक हों। सोमदेवने अपनेको नेमिदेवका शिष्य लिखा है जो कि यशोदेवके शिष्य थे और उन्हें सकलताकिकोंका चुडामणिरूप महाबादी प्रकट किया है। इन भगवान् नेमिदेवके अनेक शिष्योंमें सोमदेव भी एक शिष्य थे। परभनीके ताम्र-शासनसे भी यह सिद्ध होता है।
नेमिदेवके शिष्योंमें जो १०० शिष्य सोमदेवके अमज थे उनमें महेन्द्रदेव प्रमुख विद्वान् तथा सोमदेवके विशेष सम्पर्क में रहनेवाले थे। इसी कारण सोमदेवने नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें उनका उल्लेख किया है।
के० के० हेडिकि, उपकुलपति गोहाटी विश्वविद्यालयने अपने 'यशस्तिलक एण्ड इण्डियन कल्चर' (Yasastilak and Indian Culture) नामक ग्रन्थ के परिशिष्ठ संख्या १ में सोमदेवके प्रतिहार राज्य कन्नौजके साथ प्रस्तावित सम्बन्ध विषयमें विचार करते हुए उसे ऐतिहासिक तथ्यके रूपमें स्वीकार नहीं किया है। सोमदेवने यशस्तिलकमें अपनेको देवसंधका बतलाया है और परभनोके १. तत्वानुशासन, वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट प्रकाशन, दिसम्बर सन् १९६३, पद्य २५६,
२५७, पृ. २१५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषनाचार्य : २३३