Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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औषध, रस, बल और अक्षीण महानस ऋद्धियों की प्राप्ति भी होती है । मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर मुनिधर्मका आचरण करता हुआ पुण्यात्मा निर्वाणको प्राप्त कर लेता है।
वसनन्दिने एकादश प्रतिमाओंको आधार मान कर श्रावधर्मका प्रतिपादन किया है। इन्होंने कुन्दकुन्दके समान सल्लेखनाको चतुर्थ शिक्षाव्रत बतलाया है । श्रावकके आठ मूलगुणोंका उल्लेख भी नहीं किया गया है। सप्तब्यसनोंमें मांस और मध सेवन ये दो स्वतन्त्र विषय माने गये हैं और मद्य सेवनके अन्तर्गत मधुके परित्यागका भी स्पष्ट निर्देश किया है तथा दर्शनप्रतिमाधारी लिए ससध्यसगोले सापांच उदुम्बरफरतो. सागका भी स्पष्ट कथन आया है । वसुनन्दीने अपने इन विचारों द्वारा अष्टमूलगुणवाली परम्पराका भी समन्वय करनेकी चेष्टा की है। ___ वसुनन्दोके इस श्रावकाचारमें व्रतोंके अतिचारोंका कथन नहीं आया है । प्रतीत होता है कि इन्होंने आचार्य कुन्दकुन्दके 'चारित्रपाहुड'को शैलीका अनुसरण कर अतिचारोंका कथन नहीं किया है। स्वामिकात्तिकेयानूप्रेक्षा और देवसेनके भावसंग्रहमें भी अतिचारोंका कथन नहीं आया है। इस प्रकार वसुनन्दिने अपने उपासकाध्ययनमें अनेक नये तथ्योंका समावेश किया है।
प्रतिष्ठासारसंग्रह
इस ग्रन्थमें छः परिच्छेद हैं। प्रथम और द्वितीय परिच्छेदमें पंचांग शुद्धि और लग्न-शुद्धिका वर्णन आया है। लान-शुद्धिके साथ षड्वर्ग-शुद्धि, गोचरग्रह-शुद्धि आदि भी वर्णित हैं । तृतीय परिच्छेदमें भूमि-शुद्धि, भूमि-परीक्षा, दिग्देवता, वास्तु-पूजा, वास्तुपूजाके मन्त्र, दिशाओंके स्वामो आदि वर्णित हैं । प्रन्थकर्ताने इस परिच्छेदका नाम बास्तुविचार रखा है।
चतुर्थ परिच्छेदके प्रारम्भमें जिनबिम्बके बनानेको विधिका वर्णन करते हुए लिखा है
अथ बिबं जिनेंद्रस्य कर्तव्यं लक्षणान्वित्तम् | ऋज्वायतसुसंस्थानं तरुणांगं दिगंबरम् ।। श्रीवृक्षभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् ।
निजांगुलप्रमाणेन साष्टांगुलशतायुतम् ।। १. जैन सिद्धान्त भवम आराकी हस्तलिखित प्रतिल चतुर्थ परिच्छेद, पञ्च १-२ ।
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प्रमुखाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २३१