Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
२०५वीं गाथासे ३१२वीं गाथा तक ११ प्रतिमाओंका वर्णन आया है। ब्रतप्रतिमाके अन्तर्गत पाँच अणुव्रत, तीन गुण ब्रत और चार शिक्षाक्तोंका निरूपण किया है। अतिथिसंविभाग व्रतके अन्तर्गत दानका वर्णन किया है । उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारके पात्र होते हैं। इनमें प्रत, नियम और संयमका धारण करनेवाला साधु उत्तम पात्र कहलाता है । ग्यारह प्रतिमास्थानोंमें स्थित श्रावक मध्यम पात्र है। अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है। जो व्रत, तप और शीलसे सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह कुपात्र है । सम्यक्त्व, शील और अतसे रहित जीव अपात्र है । जिस दातामें श्रद्धा, भक्ति, सन्तोष, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और शक्ति ये सात गुण होते हैं, वह दाता प्रशंस्य है।
इसके अनन्तर दान विधिका आहार, औषध, शास्त्र और अभय दानोंका, दानके फलका वर्णन किया गया है। सल्लेखनावतका वर्णन भी किया गया है 1 अनन्तर सामायिकप्रतिमा, प्रोषधप्रतिमा, सचित्तत्यागप्रतिमा, रात्रिभुक्तित्यागप्रतिमा, ब्रह्मचर्यप्रतिमा, आरम्भनिवृत्तप्रतिमा, परिग्रहत्यागप्रतिमा, अनुमतित्यागप्रतिमा और उद्दिष्टत्यागप्रतिमाके स्वरूपका निरूपण किया गया है 1 रात्रिभोजनके दोषोंका वर्णन करनेके अनन्तर थावकके अन्य विधेय कत्तव्योंका कथन किया है । यथा--
विणओ विज्जाविच्वं कायकिलेसो य पुज्जणबिहाणं ।
सत्तीए जहजोग्गं कायन्वं देसबिरएहि ।।' अर्थात्-देशविरत श्रावकको अपनी शक्तिके अनुसार यथायोग्य विनय वैयावृत्य, काय-क्लेश और पूजन विधान करना चाहिये । दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तप विनय और उपचारविनय ये पांच प्रकारके विनय, बतलाये गये हैं। वैयावृत्यके अन्तर्गत मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इस चतुविध सबके चयावृत्य करनेका वर्णन किया है ! काय-क्लेशके अन्तर्गत व्रत, उपवास एवं पंचमीयत, रोहिणीनत, अश्विनीवत, सौख्यसम्पत्तिवत्त, नन्दीश्वरपक्तिव्रत और विमानपंक्तिव्रत आदि व्रतोंका कथन किया है।
इसके पश्चात् नामपूजा, स्थापनापूजा, आदिका कथन करते हुए प्रतिष्ठाचार्य, प्रतिमा-प्रतिष्ठाकी लक्षणविधि और प्रतिष्ठाफलका कथन आया है। कारापक लक्षण, इन्द्रलक्षण, प्रतिमाविधान, प्रतिष्ठाविधानका विस्तारसे वर्णन आया है । पश्चात् द्रव्यपूजा, क्षेत्रपूजा, कालपूजा, और भावपूजाका कथन आया है। इसके पश्चात् आचार्यनै पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपा. १. वसनन्दि श्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, श्लोक ३१९ ।
प्रयुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २२९