Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अर्थात् करथि - ७२१ करणाब्द शकको वर्तमान शक में से घटाकर १२ से गुणा कर गुणनफलको दो स्थानोंमें रखना चाहिये । एक स्थानपर ३२से भाग देनेसे जो लब्ध आये उसे गतमास समझना और गतमासोंको अन्य स्थानबाली राशिमें जोड़ देना चाहिये । पुनः तीन स्थानों में इस राशिको रखकर एक स्थानमें ९ २ से, दूसरे में रसे और तीसरे में २२से गुणा कर क्रमशः एक दूसरेका अन्तर करके रख लेना । जो संख्या हो उसमें ६२का भाग देने पर लब्ध बार और शेष घटिकाएँ होती हैं ।
यहाँ पर शक संवत् ७२१ ग्रन्थरचनाका समय बताया गया है। महावीराचार्यने इसीलिये अपने पूर्ववर्ती श्रीधराचार्यके करणसूत्रको उद्धृत किया है । समस्त जैनेतर विद्वानोंने श्रीधराचार्य के सिद्धान्तोंकी समीक्षा भी इसीलिये की है कि वे उनके सम्प्रदाय के आचार्य नहीं थे ।
यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि श्रीधरके 'जातकतिलक'का रचनाकाल ईस्वी सन् १०४९ निर्धारित किया है। इसका समन्वय किस प्रकार सम्भव होगा ? यहाँ यह ध्यातव्य है कि 'जातकतिलक' में रचनाकालका निर्देश नहीं किया है । विद्वानाने वर्ण्य विषय और भाषाशैलीके आधारपर इस ग्रन्थके रचनाकालका अनुमान किया है । यथार्थतः इसका रचनाकाल ई० सन् १०४९ से पहले होना चाहिये ।
इन आचार्यकी प्राचीनताका एक अन्य प्रमाण यह भी है कि इन्होंने गणितसारमें गणितसम्बन्धी जिन सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया है, उनमें कई सिद्धान्त प्राचीन परम्परानुमोदित हैं । उदाहरणार्थं वृत्तक्षेत्रसम्बन्धी गणितको लिया जा सकता है । वृत्तक्षेत्रकी परिधि निकालनेका नियम - " व्यासवर्गको दससे गुणा कर वर्गमूल परिधि होती है" यह जैन सम्प्रदायका है। वर्तमानमें उपलब्ध सूर्यसिद्धान्त से पहलेके जैनग्रन्थोंमें यह करणसूत्र पाया जाता है । जैनेतर साहित्य में सूर्यसिद्धान्त ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें इस सूत्रको स्थान दिया गया है। जैनेत्तर प्रायः सभी ज्योतिर्विदोंने इस सिद्धान्त की समीक्षा की है। तथा कुछ लोगोंने इसका खण्डन भी । श्रीधराचार्यने इस जैनमान्यताका अनुसरण किया है तथा प्राचीन जैनगणितके मूलतत्त्वोंका विस्तार भी किया है । अतएव श्रीधराचार्य का समय ईस्वी सन्की आठवीं शतीका अन्तिम भाग या नवम शतीका पूर्वाधं है ।
रचनाएँ और उनका परिचय
श्रीधराचार्यकी ज्योतिष और गणित विषयक चार रचनाएँ मानी जाती हैं । १. गणितसार या त्रिशतिका ।
प्रबुद्धाचार्यं एवं परम्परापोषकाचार्य १९९