Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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दुरित-ग्रह- निग्रहाद्भयं यदि भो भूरि-नरेन्द्र वन्दितम् । ननु तेन हि भव्यदेहिनो भजत श्रीमुनिमिन्द्रनन्दिनम् ॥ १
अर्थात् हे भव्यजीवो ! यदि तुम्हें दुरित-निग्रहोंसे - पापरूपी ग्रहके द्वारा पकड़े जाने से कुछ भय होता है तो अनेक नरेन्द्र वन्दित इन्द्रनन्दि मुनिको भजो ।
इन्द्रनन्दि प्रायश्चित्त विधि द्वारा पापरूप ग्रहका निराकरण करनेवाल हैं । अतएव उनके प्रायश्चित्त शास्त्रके पढ़ने की ओर किया गया संकेत प्रतीत होता है । छेद-पिण्ड ग्रन्थके प्रशस्ति पद्यमें भी इस शास्त्रको मलहरण करने वाला बताया है । अतएव यह अनुमान निर्दोष है कि मल्लिषेण प्रशस्ति में उल्लिखित इन्द्रनन्दि ही छेद- पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दि हैं । मल्लिषेण प्रशस्ति शक संवत् १०५०, फाल्गुन शुक्ला तृतीयाको अति की गयी है । अतएव इन्द्रनन्दिका समय इससे पूर्व होना चाहिए। हमारा अनुमान है कि इन इन्द्रनन्दिका समय ई० सन् की दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या ११वीं शतीका पुर्वाधं होना सम्भव है ।
रचना-परिचय
इन्द्रनन्दिका छेदपिण्ड नामक ग्रन्थ उपलब्ध होता है । इस ग्रन्थका प्रकाशन माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे वि० सं० १९७८ में हुआ है । प्रकाशित प्रतिमें ३६२ गाथाएँ हैं, पर ग्रन्थ में निबद्ध गाथा में ३३३ ही गाथाओंकी संख्या बतायी है और इलोक प्रमाण ४२० बताया गया है—
चउरसयाई वीसुतराई गंथस्स परिमाणं । तेतीसुत्तरतिसयपमाणं गाहाणिबद्धस्स ।।
श्री प्रेमीजीने 'तेतीसुत्तर' के स्थानपर 'बासट्टयुत्तर' पाठ स्वीकार किया है, पर आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने इस मान्यताका खण्डन किया है और उन्होंने मूल गाथाएँ ३३३ ही मानी हैं। शेष गाथाओंको प्रक्षिप्त माना है । २९. गाथाएँ जहाँ-तहाँ प्रक्षिप्त रूपमें समाविष्ट हो गयी हैं। मुख्तार साहबने कुछ गाथाओंकी छानबीनकर उन्हें प्रक्षिप्त सिद्ध किया है, पर हमें मुस्तार साहब के तर्फ समीधीन प्रतीत नहीं होते । हमने समस्त ग्रन्थ ३६२की अक्षर संख्या गिनकर श्लोक मान निकाला तो ४२० श्लोकसे कुछ ही अक्षर बढ़ते हैं । अतएव इस ग्रन्थ में प्रक्षिप्त या व्यर्थकी बढ़ी हुई गाथाओं में न कहीं पुन१. जैनशिलालेख संग्रह, माणिकचन्द्र पन्वमाला, प्रथम भाग, शिलालेख संख्या५४, पद्य - २७, पृ० १०६ ।
२. छेदपिण्ड माणिक चन्द्र ग्रंथमाला, प्रथांक- १८, गाथा - ३६० १०७५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: २२१