Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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गाथा है । इन्द्रियनिरोधमें होनेवाले अतिचारोंको शुद्धिके लिए एक, दो, तोन, चार और पांच उपवास करनेका वर्णन आया है। १३वो अधिकार केशलुऊचाधिकार है । इसमें १०५-१०८ गाथाएं हैं। समयका अतिक्रमण कर केशलुञ्च करना या आगमोक्त विधिके अनुसार कैशलञ्च न करने सम्बन्धी प्रायश्चित्तोंका वर्णन है। चतुर्दश षडावश्यकाधिकारमें १०९-१२३, पञ्चदश अचेलकाधिकारमें १२४-२५, षोडश अस्नान-अदन्त-मन-क्षितिशयनाधिकारमें १२६वीं गाथा, सप्तदश स्थितिभोजनकमवताधिकारमें १२७वीं गाथा, अष्टादश उत्तरगुणाधिकारमें १२९-१५२ गाथाएँ, एकोनविंशति चलिका प्रकरणमें १५३-१७३ गाथाएं", २०वें दशावध प्रायश्चित्ताधिकारमें १७४-१७५ गाथाए', २१वें आलोचनाधिकारमें १७७-१८१ गाथाएं, २२वें प्रतिकमणाधिकारमें १८२-१८७, २३वें उभयाधिकारमें १८८-१८९ गाथाएँ, २४वें विवेकाधिकारमें १२०-१९३ गाथाएं, २५वें व्युत्सर्गअधिकारमें १९४-२०२, २६वं तपाधिकारमें २०३-२०८, २२६-२४२, २७वें पंचकअधिकारमें २०९-२१५, २८वें मासिक चतुर्मासिक अधिकारमें २१६-२१८, २८वें षापमासिकाधिकारमें २१२-२२५, ३०वें छेदाधिकारमें २४३-२५२, ३१वें मूलाधिकारमें २५३-२६१, ३२वें स्वगणानुपस्थान अधिकारमें २६२-२६९, ३३वे परगणानुपस्थान अधिकार में २७०-२७५, ३३वें पारश्चिक अधिकारमें २७६-२८४, ३४वें श्रद्धानाधिकार में २८५-२८७, ३५वें ऋषि प्रायश्चित्त अधिकारमें २८८वीं गाया, ३६वें संयतिका या श्रवणो नाम अधिकारमें २८९-३०२ और ३७वें त्रिविधश्रावक प्रायश्चित्ताधिकारमें ३३७-३६९ गाथाएँ आयी हैं। नामानुसार तत्तदधिकारमें होनेवाले दोष और उन दोषोंके निराकरणार्थ प्रायश्चित्तविधिका वर्णन आया है । वस्तुतः यह प्रायश्चित्तशास्त्र आत्म-शुद्धिके लिए अत्यन्त उपयोगी है । मलगुण और और उत्तरगुणोंमें प्रमाद या अज्ञानसे लगनेवाले दोषोंका कथन किया गया है।
आचार्य वसुनन्दि प्रथम वसुनन्दि नामके अनेक आचार्य हुए हैं। एक ही वसुनन्दिको आप्तमीमांसावृत्ति, जिनशतकटीका, मूलाचारवृत्ति, प्रतिष्ठासारसंग्रह रचनाएँ सम्भव नहीं हैं । ग्रन्थ परीक्षणोंसे यह अनुमान होता है कि आप्तमीमांसावृत्ति और जिनशतक टीकाके रचयिता एक ही व्यक्ति हैं । इसी प्रकार प्रतिष्ठापाठ और श्रावकाचारके रचयिता भी एक ही वसुनन्दि होंगे, क्योंकि इन दोनों रचनाओं में पर्याप्त साम्य है। वसुन्दि प्रथमने प्रतिष्ठासंग्रहकी रचना संस्कृत भाषामें की है और श्रावकाचार या उपासकाध्ययनकी रचना प्राकृत भाषामें | अतः स्पष्ट है कि ये उभय भाषाके शाता थे। यही कारण है कि बसुनन्दिको उत्तरवर्ती
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २२३