Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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आचार्यांने सैद्धान्तिक उपाधि द्वारा उल्लिखित किया है। श्रावकाचारकी प्रशस्ति में वसुनन्दिने अपनी गुरुपरम्पराका निम्न प्रकार उल्लेख किया है
गायी
सिरिषदसंताणे |
सिरिदिणामेण ||
एमप भव्वणकुमुयवर्णसिसिरयरो कित्ती जस्सिदुसुम्भा सयलभुवणमज्जहिच्छं भमित्ता, णिन्वं सा सज्जणाणं हियम वयण-सोए निवास करेई । जो सिद्धतंबुरासि सुणयतरणमा सेज्जलीलावतिष्णो । वण्णेउ' को समत्यो सयलगुगगणं से वियड्ढो बिलोए ॥ सिस्सो तस्स जिदिसासणरओ सिद्ध तपारंगओ, खंती - मेष्ट्व-लाहबादसहाधम्मम्मि जिओ । पुणे दुज्जल कित्तिपूरिथजओ चारितलच्छीहरो, संजाओ णयनंदिणाममुणिणो भासाणंद ॥ सिस्सो तस्स जिणागम-जल निहिवेलात रंगधोयमणो । संजाओ सयलजए विक्खाओ नेमिचन्दु ति ॥ तस्स पसाएण मए आइरिय परंपरागयं सत्थं । चच्छल्लयाए रइयं भवियाण मुवासयझणं ॥ १
श्री कुन्दकुन्दाचार्यकी आम्नाय में स्वसमय और परसमय के ज्ञायक भव्यजनरूप कुमुदवनको विकसित करनेवाले चन्द्रतुल्य श्रीनन्दि नामके आचार्य हुए। जिसकी घन्द्र भी शुभ कीर्ति समस्त भुवनोंके भीतर इच्छानुसार परिभ्रमण कर पुन: वह सज्जनोंके हृदय, भुख और श्रोत्रमें निवास करती है, जो सुनयरूप नौका आश्रय लेकर सिद्धान्तरूप समुद्रको लीलामात्रसे पार कर गये उन श्रीनन्दि आचार्य के समस्त गुणगणोंका कौन वर्णन कर सकता है ।
उन श्रीनन्दि आचार्यका शिष्य जिनेन्द्रशासनमें रत सिद्धान्तका पारंगत, क्षमा, मार्दय, आर्जव आदि दश प्रकारके धर्ममें नित्य उद्यत, पूर्णचन्द्र के समान उज्ज्वलकीर्ति जलको पवित्र करनेवाला चारित्ररूपी लक्ष्मीका धारक और भव्यजीवोंके हृदयको आनन्दित करनेवाला नयनन्दि नामका मुनि हुआ ।
उस नयनन्दिका शिष्य जिनागमरूप जलनिधिको बेलात रंगोंसे धुले हुए हृदयवाला नेमिचन्द्र - इस नामसे सकल जगत् में प्रसिद्ध हुआ ।
उन नेमिचन्द्र आचार्यके प्रसादसे मैंने आचार्य परम्परासे आया हुआ यह उपासकाध्ययनशास्त्र वात्सल्यभावना से प्रेरित होकर भव्यजीवोंके लिए रचा है ।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि कुन्दकुन्दाचार्यको परम्परा में श्रीनन्दि नामके १. वसुनवि श्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, प्रशस्ति, गाया - ५४० - ५४४ । २२४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा